अपना सम्मान अपने हाथों में  – गीता वाधवानी

अक्सर घरों में देखा जाता है कि औरत ही औरत की दुश्मन बन जाती है और कलह उत्पन्न हो जाती है। जैसे की सास बहू, ननद भाभी या फिर देवरानी जेठानी। कभी-कभी तो छोटी सी बात इतनी बढ़ जाती है कि घर के पुरुष परेशान हो जाते हैं और समझ नहीं पाते कि किस का पक्ष ले, कौन सही है और कौन गलत? 

लेकिन जब से दीप्ति का विवाह हुआ था। वह अपनी ससुराल में बहुत खुश थी। उसके सास- ससुर और पति सभी बहुत अच्छे थे। ननंद सीमा की 4 साल पहले शादी हो चुकी थी। दीप्ति की सास सुशीला बहुत ही अच्छी थी और दीप्ति उनके साथ एक बेटी की तरह रहती थी। 

दोनों मिलजुल कर फटाफट काम निपटा कर, एक साथ मिल कर बैठ जाती और फिर मन होता तो टीवी देखती या फिर गप्पे लड़ाती। एक साथ खाना खाती। कभी-कभी एक साथ बाजार चली जाती। बहुत ही खुशनुमा वातावरण था। 

     दीप्ति की ननंद सीमा के पति को कंपनी की तरफ से 2 महीने के लिए यूएसए जाना था। इसीलिए वह मायके आ गई थी। उसका अपनी सास के साथ रिश्ता एक कड़वा अनुभव था क्योंकि वह खुद अभिमानी थी और सास रोबदार शख्सियत थी। सीमा के मायके आने के बाद से दीप्ति और सुशीला में तनातनी शुरू हो गई थी। 

दरअसल सीमा को अपनी मां और भाभी का प्यार, मिल जुलकर रहना रास नहीं आ रहा था। सीमा की सास उसे अपने दबाव में रखती थी। ऐसे में उसे अपने भाभी का हर मामले में इतना आजाद रहना भला कैसे  भाता। उसने छोटी-छोटी बातों में दीप्ति की गलतियां निकालना शुरू कर दिया और अपनी मां से कहने लगी-“मम्मी तुमने दीप्ति को बहुत छूट दे रखी है। इसे इतना सर पर मत चढ़ाओ कि बाद में पछताना पड़े। जब से मैं आई हूं देख रही हूं। दोपहर में महारानी पैर पसार कर सो जाती है। जब मन करता है टीवी देखती है जब मन करता है पकोड़े बनाकर खाती है। जब मन करता है सूट या जींस पहन लेती है। तुम तो किसी बात में उसे रोकती

 टोकती ही नहीं हो। मेरी सास को देखो, मजाल है जो मैं पल भर चैन की सांस ले सकूं, ललिता पवार से कम नहीं है।” 




रोज-रोज यह सुन सुनकर सुशीला जी को भी लगने लगा कि सीमा ठीक कह रही है और उन्होंने बेमतलब की रोक-टोक शुरू कर दी। 

एक दिन सुशीला जी की पड़ोसन खाली समय में उनसे मिलने आ गई। दीप्ति ने पूछा-“मां क्या बना कर लाऊं, पकोड़े बना दूं।” 

सुशीला-“हां हां बना लो, इसमें पूछने वाली क्या बात है,?” 

उसके रसोई में जाते ही वह अपनी बेटी के साथ मिलकर पड़ोसन के सामने उसकी बुराई करने लगी। दीप्ति ने सब कुछ सुन लिया था। 

यह सब सुनकर दीप्ति को बहुत गुस्सा आया और दुख भी हुआ। जबकि उसने कभी किसी काम से जी नहीं चुराया था और हर वक्त मेहमानों की आवभगत सही तरीके से की थी। धीरे-धीरे दीप्ति के मन से अपनी सास के लिए आदर सम्मान कम होता जा रहा था और उसे लगने लगा था कि सीमा जल्द से जल्द अपनी ससुराल वापस चली जाए। आखिर एक दिन वह वापस चली गई। तब अपने पति का मूड ठीक देखकर, दीप्ति ने उन्हें पूरी बात बताई और कहा -“पहले हमारा रिश्ता कितना अच्छा था, आप मां से बात करो, इस बारे में।” 

वह बेचारा सोच में पड़ गया फिर उसने अपने पापा को पूरी बात बताई और उनसे कहा”आप  ही मां को समझा सकते हैं।” 

पापा को अपनी बेटी सीमा का स्वभाव बहुत अच्छी तरीके से पता था इसीलिए मैं तुरंत सारी बात समझ गए और सुशीला जी को समझाया-“सुशीला, तुम इतनी समझदार होकर भी नादान सीमा की बातों में कैसे आ गई और  बहू पर बेकार की टोका टोकी करने लगी। हमारी इज्जत हमारे ही हाथों में होती है। हमारी जुबान ही हमें सम्मान दिलवाती है और अपमान भी यही करवाती है। पहले तुम्हारा रिश्ता दीप्ति के साथ कितना अच्छा था और अब देखो, क्या हो गया है तुम्हें? कहीं ऐसा ना हो कि कड़वा बोलना और  बेकार की टोका टोकी के कारण बहू की नजरों में तुम अपना सम्मान खो बैठो। सुशीला, समय रहते संभल जाओ। सीमा भी धीरे-धीरे समझ जाएगी, बल्कि तुम्हें ही उसे समझाना होगा। हां, इतना अवश्य है कि जहां पर दीप्ति सचमुच गलत हो ,वहां तुम उसे प्यार से समझा सकती हो।”

सुशीला जी को अपने गलती समझ में आ गई थी और वह धीरे-धीरे पहले वाली सुशीला बनने लगी थी। 

स्वरचित अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली

#मासिक_कहानी _प्रतियोगिता_अप्रैल 

कहानी-३)

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