अपना घर – प्रीति आनंद

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अजीब से दोराहे पर खड़ी थीं आज मीरा जी!

खुद के लिए निर्णय लेना उन्होंने कभी सीखा  नहीं था। मायके में माता-पिता ने जो करने को कहा, उन्होंने वही किया। उन्हें गणित का विषय पसंद था पर बाबूजी ने गृह-विज्ञान में नाम लिखवा दिया तो वही पढ़ लिया! शादी के लिए बाबूजी ने जिस लड़के को पसंद किया उसी के साथ सात फेरे लिए।

ब्याह के बाद पति के दिखाए राह पर चलने लगीं। कभी कोई प्रश्न नहीं किया। शायद ही कभी अपनी पसंद-नापसंद उन्होंने जाहिर की हो! खाना-कपड़ा सब पति के ही पसंद अनुसार होता रहा। पर पति ने सदा उनका मान रखा।

परेशानी तो तब आई जब छह महीने पहले पति परलोक सिधार गए। पिता के अंतिम संस्कार के लिए आए बेटे ने माँ से साथ चलने के लिए कहा तो उन्होंने अपना सामान बाँध लिया। पति के साथ मिलकर, बहुत जतन से सजाए अपने आशियाने को अश्रुपूरित नयनों से अलविदा कह अपनी बची-खुची ज़िंदगी की डगर पर आगे बढ़ गईं।

पिछले छह महीने से दिल्ली ही हैं वे, बेटे सुशील के पास। यहाँ की ज़िंदगी झाँसी से बिलकुल अलग है। लोग अपने-अपने घरों में क़ैद रहते हैं। घर पर काम वाली बाई के अलावा शायद ही कोई आता हो!  हाँ, शनिवार को ज़रूर मजलिस जमती है शराब की! सुशील के कुछ दोस्त आते हैं, देर रात तक पीना-पिलाना चलता रहता है। साथ खाने के लिए पकौड़े आदि भी बनते हैं। शुरू के कुछ हफ़्ते तो उनके लिए भी नाश्ता आया पर अब नहीं आता।

शुरू-शुरू में जब कभी अपने कमरे में मन नहीं लगता तो वह ड्रॉइंग रूम में जा बैठती…. सोचती… लोगों की शक्ल दिखाई देगी तो मन लगेगा परंतु तुरंत बहू का प्रश्न आ जाता,

“कुछ चाहिए क्या माँजी?”

“नहीं, कुछ भी तो नहीं!” न जाने क्यों उनके पाँव खुद-ब-खुद अपने कमरे की ओर मुड़ जाते! इस तरह धीरे-धीरे उनका कमरे के बाहर निकलना बंद-सा हो गया था। वह उस कमरे में क़ैद होकर रह गईं थीं।

सुबह-शाम सुशील ज़रूर कुछ देर को हाल-चाल पूछने कमरे में आता था पर बहू और पोते से तो कई-कई दिनों तक मुलाक़ात ही नहीं होती! नाश्ता-खाना सब कामवाली या सुशील के हाथों भिजवा दिया जाता।


कल शाम वे अपने कमरे के ही दरवाज़े पर खड़ी ड्रॉइंग रूम की खिड़की से बाहर की दुनिया को देखने की कोशिश कर रही थीं कि उन्हें बग़ल के कमरे से बहु की आवाज़ सुनाई पड़ी।

“सुशील, मैंने नई गाड़ी बुक कर दी है, कल कुछ डाउन पेमेंट करना है।”

“अरे! तुम भी कमाल करती हो ऊर्मि! पैसा कहाँ से आएगा?”

“बड़े आराम से आ सकता है अगर तुम शराब पीना बंद कर दो तो।”

“तुम्हें पता है इस विषय पर मैं बात नहीं करता!”

“फिर एक दूसरा तरीक़ा भी है। झाँसी वाला मकान बेच दो!”

“वो माँ के नाम है, बड़े प्यार से बनाया है उन्होंने पापा के साथ मिलकर। वे नहीं बेचेंगी।”

“तुम बोल कर तो देखो, तुम्हारी बात नहीं टालेंगी वे।”

मीरा जी को लगा कोई उनका सीना चीर कर दिल निकाल रहा है! पूरी रात उन्हें नींद नहीं आई। इस काल-कोठरी में अपनी सारी ज़िंदगी बिताने के ख़याल से ही उनकी रूह काँप गई! अभी वे पैंसठ साल की हैं, न जाने कितनी उम्र भगवान ने लिखी है उनके खाते में! यहाँ कैसे रह पाएगीं वह? एक-एक दिन बिताना कितना भारी लगता है यहाँ!

वे झाँसी का घर कैसे बेच दें? वहाँ अपनी जीवन के पैंतालीस वर्ष गुज़ारे हैं उन्होंने। उनके लिए तो वो ईंट-गारे का मकान नहीं, परिवार का जीता-जागता सदस्य है। उनके जीवन के हरेक सुख-दुःख का साक्षी है वह!

मकान तो छोड़ो, दिल्ली शहर भी झाँसी के सामने कहाँ टिकता है? सुख-सुविधाएँ होंगी, चमक-दमक वाले बाज़ार भी हैं पर मानवता कहाँ है? अजनबियों का शहर है ये!

झाँसी में तो गेट पर भी खड़े हो जाओ तो चार लोग हालचाल पूछने आ जाते हैं! वहाँ उनके घर कार नहीं थी पर पिछले वर्ष जब वह सीढ़ियों से गिर पड़ी थीं तो पाँच मिनट के अंदर उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी आ गई थी! किसी के रसोई में अगर कोई ख़ास चीज़ बनी हो तो एक कटोरी उनके लिए भी आ जाती! कभी चाय बनाने का मन न हो तो पड़ोसी के घर चले जाओ… इत्तला करने की कभी ज़रूरत नहीं होती! कैसे बेच दें वह अपने दिल के टुकड़े को?

पता नहीं क्या उत्तर देगीं वह अगर सुशील ने उनसे पूछा तो…. इसी मंथन में रात निकाल गई।

जैसा कि उन्हें अंदेशा था, सुबह सुशील ने प्रश्न  पूछ ही लिया,


“माँ, अब तो आप हमेशा यहीं रहोगे, हमारे पास, अपनों के बीच। फिर झाँसी वाला घर बेच दें? आजकल लैंड माफिया वाले बहुत सक्रिय हैं, अगर खाली घर देख कर क़ब्जा कर लिया तो हाथ पर हाथ धरे रह जाएँगे हम। कहाँ कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाएँगे?”

जब पीठ दीवार से लग जाए तो कहीं न कहीं से शक्ति मिल ही जाती है।

“उस घर में तुम्हारे पिता के मौजूदगी का एहसास है, तुम्हारे बचपन की यादें हैं, मेरे जीवन के हरेक पल का प्रत्यक्षदर्शी है वह ……”

“माँ, पापा तो अब है नहीं पर उनकी सबसे बड़ी निशानी तो मैं हूँ, हमेशा आपके पास ही रहूँगा। पापा को याद रखने के लिए घर की क्या आवश्यकता है?”

“नहीं बेटा, मेरे मरने के बाद तुम चाहे जो करना पर जब तक मैं ज़िंदा हूँ, वो घर नहीं बिकने दूँगी, तुम चाहे जितनी कोशिश कर लो।”

“फिर वहीं जाकर रहिए न, यहाँ क्या कर रहीं हैं आप? आराम की ज़िंदगी रास नहीं आती आपको!” कह कर सुशील दनदनाता हुआ बाहर निकल गया।

मीरा जी सन्न रह गईं। सुशील से ऐसा कुछ सुनने को मिलेगा उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था! पर उसके इस वक्तव्य ने उन्हें निर्णय लेने का साहस दे दिया था।

शायद सुशील को भी एहसास हो गया था कि उसने माँ से कुछ ज़्यादा ही बुरा बोल दिया है इसीलिए वह दोपहर को ही घर आ गया। पर तब तक मीरा जी अपना सामान पैक कर चुकी थीं।

“सही कह रहे थे तुम सुशील, जब मेरे पास  अपना घर है तो मैं यहाँ, तुम्हारे पास, अपनेपन की चाहत में क्यों पड़ी हुई हूँ? झाँसी में न अपनों की कोई कमी महसूस होती है बेटा, न अपनेपन की! वहाँ तो पूरा शहर ही मेरा परिवार है! मैं शाम की ट्रेन से अपने इसी परिवार के पास वापस जा रही हूँ।”

स्वरचित

प्रीति आनंद

 

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