अपना अपना दर्द – विनोद प्रसाद ‘विप्र’

पार्क में एक बेंच पर दो अनजान महिलाएं बैठी थी। पति से अनबन के कारण दोनों महिलाएं परेशान लग रही थी। दोनों के चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी। संकोचवश दोनों एक-दूसरे से बात नहीं कर रही थी। पर थोड़ी देर बाद ही पहली महिला ने पहल करते हुए बातचीत का सिलसिला शुरू किया।

“क्या बात है, बहुत परेशान लग रही हो।”

“हाँ दीदी, परेशानी की वजह से ही थोड़ी देर इस पार्क में मन बहलाने चली आती हूँ”- दूसरी महिला ने जवाब दिया।

“बात मन में रहे तब और भी परेशानी बढ़ जाती है। इसलिए किसी हमदर्द के साथ अपनी परेशानी साझा करने से मन हल्का हो जाता है। यदि तुम चाहो तो मुझे भी अपना हमदर्द समझकर अपनी परेशानी बता सकती हो।”

दूसरी महिला ने अपनी कहानी सुनाई।

 “मैं संयुक्त परिवार में रहती हूँ। परिवार में हम पति-पत्नी और दो बच्चों के अलावा सास-ससुर और एक बेरोजगार देवर भी है। सबके लिए खाने-पीने से लेकर सारा  इंतजाम हमें ही करना पड़ता है। दिन भर काम करने के बाद मैं थक कर चूर हो जाती हूँ।”

“घर के कामों में तुम्हारे पति का तो सहयोग मिलता होगा न ?”- जानने की गरज से पहली महिला ने पूछा।

“हाँ, जब वे घर पर होते हैं तब मेरे काम में जरूर हाथ बंटाते हैं।”

“बहन, यदि हम मन में सकारात्मक सोच रखें तब बड़ी से बड़ी परेशानी का भी सामना सहजता से कर सकते हैं।”

“मैं समझी नहीं”



पहली महिला बोली- “देखो, परिवार के लिए खाना पकाने में हम स्त्रियों को सर्वाधिक खुशी होती है। हम जितना खुश होकर खाना बनायेंगे, उतना ही खाना पौष्टिक और स्वादिष्ट होगा। घर के सारे लोग यदि प्रेम से खाना खा लें तब गृहिणी को आत्मिक संतुष्टि मिलती है। घर को साफ-सुथरा रखने की कला जितनी हम स्त्रियों में होती है उतनी पुरूषों में नहीं। और सबसे बड़ी बात है कि तुम्हारे पति का सहयोग भी तुम्हें मिल जाता है।”

दूसरी महिला ने फिर अपनी परेशानियों का रोना रोते हुए कहा- “अब क्या बताऊं बहन, गृहस्थी संभालने में ही मेरे पति की सारी कमाई खत्म हो जाती है। महीने के अंत तक बड़ी मुश्किल से चला पाती हूँ।सोचती हूँ कि भविष्य के लिए कुछ रूपए बचा लूं, तो यह भी नहीं हो पाता है।”

पहली महिला बोली- “यह परेशानी भी क्षणिक ही है। जब देवर की भी कमाने लगेगा फिर सब ठीक हो जाएगा।”

दूसरी महिला ने फिर कहा- “मैं चाहती हूँ कि हमारी अलग दुनिया हो, जहां सिर्फ मेरे पति और बच्चे रहें। सास-ससुर या किसी और की दखल अंदाजी बिल्कुल ही न हो।

लेकिन मेरे पति अपने माँ-बाप और भाई  को छोड़कर अलग नहीं होना चाहते हैं। इसी बात पर आए दिन घर में कलह का  वातावरण बना रहता है। परिवार में रोज की चिक चिक से परेशान रहती हूँ।”



पहली महिला ने समझाया- “बहन, नसीब वालों को ही परिवार का सुख मिलता है। माता-पिता का घर छोड़ने के बाद बेटी को अनजान लोगों से जन्म-जन्मांतर का रिश्ता बनाना पड़ता है। मां-बाप का साथ छूटना असहनीय दर्द देता है, लेकिन यदि हम सास-ससुर को ही माता-पिता का सम्मान दें और परिवार का ख्याल रखें तो यह दर्द भी दूर हो सकता है।”

दूसरी महिला ने सकारात्मक भाव से सिर हिलाते हुए पूछा- “दीदी, आपने अपनी परेशानी के बारे में कुछ नहीं बताया।”

“क्या बताऊं बहन, शायद तुम्हें अच्छा न लगे। गांव के घर पर पन्द्रह-बीस लोगों का भरा-पूरा परिवार है।”

“तब तो आप और भी परेशान रहती होंगी”- दूसरी ने आशंका प्रकट करते हुए कहा।

“नहीं, बल्कि मैं बहुत खुश थी। सब एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं। मैं अपने स्वर्ग जैसे घर, देवता सदृश सास-ससुर, भाई-बहन की तरह प्यारे देवर-ननद और अभिभावक तुल्य जेठ-जेठानी से कभी अलग नहीं होना चाहती थी। लेकिन इनकी नौकरी के कारण मैं इस शहर में अपने पति और सात साल के इकलौते बेटे के साथ रह रही हूँ। जब पति दफ्तर चले जाते हैं और बेटा स्कूल चला जाता है तब अकेला घर काटने को दौड़ता है। मैं इनसे हमेशा कहती हूँ कि कम से कम माँ-पिताजी को यहाँ ले आइए ताकि बेटा भी अपने दादा-दादी से घुल-मिल जाए। और मुझे भी उनकी सेवा करने का मौका मिल सके। पर इन्हें एकल परिवार पसंद है। और इसी बात पर हम दोनों में अक्सर विवाद होता रहता है।”

दोनों ने निर्णयात्मक दृष्टि से एक-दूसरे का चेहरा देखा और चुपचाप अपने-अपने घर चली आईं। 

#परिवार 

-विनोद प्रसाद ‘विप्र’

, पटना-800014 (बिहार)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!