बेटी पद्मजा के स्कूल में स्वागत कक्ष में बैठा नीलेन्द्र प्रिंसिपल डा० चौधरी की प्रतीक्षा कर रहा था। अचानक चपरासी ने आकर उसे प्रिंसिपल ऑफिस में चलने को कहा।
प्रिंसिपल ऑफिस में पहुॅच कर नीलेन्द्र जैसे ही अंदर पहुॅचा, प्रिंसिपल की कुर्सी पर बैठी शख्सियत को देखकर चौंक गया ” – तुम……. मेरा मतलब…… आप।”
” आइये, मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रही थी।”
” लेकिन……।”
” मुझे यहॉ देखकर आश्चर्य हो रहा होगा तुम्हें लेकिन मैंने तुम्हें धन्यवाद देने के लिये बुलाया था। उस दिन तुम्हारे द्वारा किया गया मेरा वह अपमान वरदान बन गया और मैं यहॉ तक पहुॅच पाई।”
” मुझे क्षमा कर दो , समझ लो वह एक बचपना था।”
” नहीं नीलेन्द्र तुम्हें क्षमा मॉगने या लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है। उस समय जरूर बुरा लगा था और मैं वर्षों तक तुम्हारे और तुम्हारे मित्रों के उस अट्टहास को भूल नहीं पाई थी लेकिन जैसे जैसे आगे बढती गई मन का मैल स्वयं ही समाप्त हो गया क्योंकि मेरे लिये वह अपमान बना वरदान।”
” मेरी बेटी इस स्कूल की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाई है, यह तो मुझे पता चल गया था लेकिन प्रशासन की ओर से मुझे पत्र प्राप्त हुआ कि प्रिंसिपल मुझसे मिलना चाहती हैं। यदि तुम मुझे शर्मिन्दा या लज्जित नहीं करना चाहती तो क्या यहॉ बुलाने का कारण जान सकता हूॅ?”
इस कहानी को भी पढ़ें:
कभी कभी कड़वी गोली देनी पड़ती है – संगीता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi
” मुझे लगा यदि कभी तुम्हें मेरे बारे में पता चलेगा तो तुम यही सोचोगे कि मैंने बदला लेने के लिये तुम्हारी बेटी का एडमिशन नहीं होने दिया जबकि मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं था। यह देखो, अपनी बेटी की कॉपी।”
कहकर डा० मणि चौधरी ने पद्मजा की कॉपी नीलेन्द्र के सामने रख दी। सचमुच पद्मजा की कॉपी का मूल्यांकन बिल्कुल सही था।
नीलेन्द्र तो चले गये लेकिन मणि की ऑखों के सामने सारी घटनायें घूमने लगीं। अम्मा की खराब तबियत के कारण जब वह मेहरोत्रा साहब के घर काम करने गई थी उस समय नहीं जानती थी कि यह घर उसके सहपाठी नीलेन्द्र का है।
दूसरे दिन स्कूल से सारे बच्चे उसे ” बाई …..बाई ” कहकर चिढाने लगे। सारे बच्चे उसके सामने जूठे टिफिन बॉक्स रखकर कहते -” लो, तुम्हारा तो काम ही है जूठे बर्तन साफ करना। इन्हें भी साफ करो, हम तुम्हें पैसे दे देंगे।”” नित्य ही वह रोते हुये घर आती और उसकी मॉ रानी उसे समझा- बुझाकर स्कूल भेज देती। आखिर उसने मॉ से कहना छोड़ दिया लेकिन उसका पढ़ने में मन नहीं लगता था और वह अनुत्तीर्ण हो गई।
नीलेन्द्र और उसके साथी बच्चे उसका अपमान करते हुये ठहाका लगाकर हॅसते रहे- ” बाई की लड़की को बर्तन साफ करना, झाड़ू पोंछा करना आना चाहिये। पढकर क्या करेगी?”
घर आकर मॉ को अपना रिजल्ट बताने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी लेकिन मणि का उतरा हुआ चेहरा देखकर रानी सब समझ गई। उसने बेटी को गोद में लिटाकर उसका सिर सहलाते हुये कहा –
” हम काम करके अपना पेट भरते हैं, इसमें शर्म की क्या बात है? तुम्हारी मेहनत और पढ़ाई ही इन अपमान करने वाले बच्चों का जवाब है। पढ लिखकर जब तुम किसी उच्च कुर्सी पर बैठोगी तब मुझे तो तुम पर गर्व होगा ही, जब कभी इनमें से कोई भी तुमसे मिलेगा खुद ही शर्मिन्दा होगा। अब तुम सोंच लो कि तुम्हें क्या करना है? तुम चाहो तो इस अपमान के कारण शिक्षा छोड़कर अपनी जिन्दगी बरबाद कर लो और जिन्दगी भर मेरी तरह दूसरों के घरों में काम करो। चाहो तो इस अपमान को वरदान बनाकर अपनी जिन्दगी और भविष्य संवार लो।*
गर्मियों की छुट्टियों चल ही रही थीं कि रानी को एक ऐसे घर में काम मिला जहॉ उसे पैरालाइसिस की मरीज प्रभा नाम की एक युवती और दो छोटे बच्चों की देखभाल करनी थी। रानी ने काम शुरू करने के पहले शर्त रखी कि उसे रहने को जगह दी जाये और उसकी बेटी के पढने की व्यवस्था की जाये भले ही वह स्कूल सरकारी हो।
इस कहानी को भी पढ़ें:
बेटे के गर्भ में आने के बाद से उस घर की मालकिन प्रभा की कमर के नीचे का भाग शून्य होता चला गया। पहले डाक्टरों का कहना था कि बच्चे के जन्म के बाद प्रभा की समस्या ठीक हो जायेगी लेकिन बच्चा सात महीने का हो चुका था लेकिन अभी तक प्रभा का शरीर वैसा ही था।
रानी ने बच्चों की देखभाल और प्रभा की सेवा बहुत निष्ठा और लगन से की। पॉच साल की लगातार सेवा से प्रभा पूर्णत: ठीक हो गई लेकिन प्रभा ने फिर उन लोगों को अपने घर से जाने नहीं दिया।
प्रभा ने उसका गुड्डी नाम बदलकर मणि रख दिया। वादे के मुताबिक मणि का पॉचवीं कक्षा में एडमिशन करवा दिया गया। यहॉ आकर रानी और मणि दोनों को बहुत अच्छा लगा। तीन साल की गुड़िया और सात महीने के गुड्डू की पॉच साल तक रानी और मणि ने बिल्कुल मॉ जैसा इतना प्यार और दुलार दिया कि बच्चे रानी को अम्मा और मणि को दीदी कहने लगे।
स्कूल से आने के बाद बचे समय में मणि प्रभा की सेवा में रानी की सहायता करने लगी। उसे प्रभा के कार्य करने में बहुत अच्छा लगता था। छोटी सी बच्ची को ऐसे सेवा करते देख प्रभा का भी उससे लगाव बढ़ गया। जैसे जैसे प्रभा स्वस्थ होने लगी वह मणि की पढ़ाई में सहायता करने लगी। प्रभा के मार्गदर्शन के कारण मणि धीरे धीरे अपनी कक्षा की मेधावी छात्राओं में सम्मिलित हो गई।
मणि की इच्छा शिक्षक बनने की थी। इसलिये प्रभा ने उसे बी० एड० करने की प्रेरणा दी। जब उसको शिक्षिका का नियुक्ति पत्र मिला, रानी की ऑखें खुशी से भीग गईं। उसने मणि को गले लगकर कहा – ” आज अपमान बना वरदान।”
आगे बढ़ते हुये वह आज डॉ० मणि चौधरी है जिसके सामने आज वही नीलेन्द्र झुककर क्षमा मॉग रहा था जिसके कारण सभी उसका रोज अपमान किया करते थे। इस तरह अपमान बना वरदान।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर