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अपराजिता – अमित किशोर

शाम का वक्त था। मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रही थी। तभी मोबाइल पर मैसेज का नोटिफिकेशन आया। पढ़ाने के धुन में, मैंने ध्यान ही नहीं दिया। ट्यूशन खत्म होते ही जैसे ही मोबाइल चेक किया, तो, पाया कि व्हाट्सएप पर एक मैसेज पड़ा हुआ है। नंबर तो सेव नहीं था पर आखरी तीन डिजिट से मैं समझ गई कि ये नंबर सुनील का ही है।

मैसेज में एक निमंत्रण पत्र था। गृह प्रवेश की सूचना थी। जैसा आजकल इन्विटेशन का फैशन हो चला है न, बिल्कुल वैसा ही। एक कार्ड और सभी जानने वालों के लिए फोरवर्डेड मैसेज। खैर, इससे परेशानी नहीं थी। मैं ये सोच रही थी, कि, आखिर इतने सालों के बाद, अचानक, सुनील को मेरी याद कैसे आ गई जो उन्हें मैसेज करना पड़ा। सवाल ये भी था कि, उन्हें मेरा नंबर मिला कहां से !!! सोचा , बहुत सोचा, फिर सोचा कि हर घर की लंका में कोई न कोई विभीषण तो होता ही है। जुगाड़ लगा लिया होगा मेरे नंबर का।वैसे भी सुनील और जुगाड़ एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो  थें।

मेरी शादी सुनील से तब हुई ,जब मैंने ग्रेजुएशन कंप्लीट ही किया था। मन तो मेरा और भी पढ़ने का था। नौकरी करने का था, पर पापा चाहते थें, कि, बेटी की शादी हो जाए तब जाकर वो अपने घर में बहु लाएं। भैया की उमर भी शादी लायक हो गई थी। कमाने भी लगे थे भैया। सरकारी नौकरी के बाद से रिश्तेदारों का भी बहुत प्रेशर था कि  अभय  की शादी हो जाए। रोज कोई न कोई तस्वीर, कुंडली डाक से घर के पते पर पहुंच जाते और मां उन्हें बढ़िया से सहेजकर प्लास्टिक के पैकेट में संभाल कर डाइनिंग टेबल के कोने में रख देती । कहती, ” पहले मिली की शादी ठीक हो जाए, फिर देखते हैं दुल्हन अभय के लिए।” मेरे लिए सुनील  का रिश्ता भी खुद चलकर ही आया था। पापा मेरे संभ्रांत डॉक्टर थे । काफी नाम और शोहरत थी। डॉक्टर साहब , डॉक्टर साहब के नाम से जाने जाते। सजातीय होने के कारण भी पापा ने कुछ खास असहमति नहीं दिखाई । थोड़ा बहुत पता किया सुनील  और उसके परिवार के बारे में । सुनील का परिवार भी बहुत संपन्न था। कमी किसी बात की नहीं थी और सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट ये था कि लोकल थे। मैं ब्याह कर भी उसी शहर में रहने वाली थी जहां मेरा मायका था। मां पापा खुद भी नहीं चाहते थे मन से कि उनकी इकलौती बेटी उनके नजरों से ज्यादा दूर जाए। आखिरकार, हमारी शादी हो गई।

शुरुवात के छह महीने तो हमारे सपनों के दुनिया वाले बीते। ऐसा महसूस ही नहीं हुआ मुझे कभी भी, कि, मैंने अपने मां पापा का घर कभी छोड़ा भी है या किसी और के घर में आ गई हूं। सब कुछ राजश्री की  एक फैमिली  सिनेमा की तरह ही था। सास ससुर, देवर सब लगे रहते मेरे आवभगत में। सेवा सत्कार तो मेरा तब और बढ़ गया जब ससुराल वालों को पता चला कि मैं प्रेगनेंट हूं। शादी के डेढ़ सालों के अंदर ही मैं मां भी बन गई। स्वाति मेरी गोद में खेलने लगी। सुनील भी बहुत खुश थें पर मेरी सास की खुशी कभी दिखी नहीं मुझे। अचानक से मेरे प्रति सास ससुर के बदले व्यवहार ने मुझे अचंभित कर दिया। पर संतोष रहता, चलो, सुनील तो हैं साथ मेरे। धीरे धीरे सब ठीक हो ही जायेगा।

दरअसल, मेरी सास की मुझसे एक पोते की उम्मीद थी। हालांकि, उन्हें कभी अपनी जुबान से ये बात मुझे नहीं बताई फिर भी ऐसी बातों को महसूस करने में वक्त ही कितना लगता है !!! समय बिता। स्वाति बड़ी होने लगी। तब तक भी सब कुछ नॉर्मल हो रखा था। दो साल हो गए। स्वाति के रूप में सुनील  को जो गुड़िया मिली थी, सुनील  भी अपनी गुड़िया के साथ खेलते। छुट्टी के दिन कांधे पर बैठा पूरा मोहल्ला घूमाते। कभी कभी तो स्वाति को अपने साथ अपने शोरूम भी ले जाते। अच्छा लगता ये सब। हमने तय किया कि अब दूसरे बच्चे के बारे में भी सोचा जाए। सुनील को ही हड़बड़ी थी। या ये कहूं, मेरी सास को जल्दबाजी थी, तो गलत न होगा। खैर, जो भी था, मैं दुबारा प्रेगनेंट हुई और इस बार फिर से मेरी आवभगत पहले से ज्यादा होने लगी पर हुआ वही जिसका मुझे डर था। इस बार श्रृष्टि आई मेरी गोद में। मेरी सास ने जैसे ही सुना, मेरी तरफ देखा तक नहीं। मेरी खुद की मां ने मुझे हॉस्पिटल से मेरे ससुराल तक पहुंचाया। साथ में सुनील  भी थे पर उनका बुझा हुआ चेहरा बता रहा था कि इस बार वो बिल्कुल खुश नहीं हैं। इस बार उन्हें दो दो बेटियों के बाप बनने से सख्त ऐतराज था।



सृष्टि के आने के बाद से मुझे वास्तव में जिंदगी के मायने पता लगने लगे। रोज की किच किच, बात बात पर  क्लेश मेरे लिए डेली रूटीन बनकर रह गया। कभी किसी से खुलकर चर्चा तो नहीं की, पर वजह सबको पता थी और सब बड़े घर की प्रतिष्ठा में अपने प्राण बचा रहे थें। सुनील का व्यवहार भी पहले से और भी खराब हो गया। मैंने इसे अपनी नियति समझा और सब कुछ ऊपर वाले के साथ साथ वक्त पर भी छोड़ दिया। मां पापा आते, मिलते, अपने दामाद, बेटी, नातिन और बाकी लोगों के लिए तोहफे लेकर और चले जाते। कभी कभी आप चाहकर भी किसी से कुछ बोल नहीं पाते क्योंकि आपको जग हंसाई का डर भी रहता है। लगभग लगभग यही हालात मेरे भी थें । तकलीफ बहुत थी पर शायद शब्द नहीं मिल पा रहे थे कि किसी को भी कुछ बता सकूं।

बेटे की लालसा वैसी ही बनी रही घर में। बेटे के लिए न जाने कितनी बार और प्रेगनेंट होना था, पता नहीं था। अब तो सुनील  किसी तरह का रिस्क लेने के मूड में बिल्कुल ही नहीं थे। और बेटियां नहीं चाहिए थी उन्हें। जान पहचान के क्लिनिक में जांच करवाया तो पता चला कि बेटी है। अबॉर्शन करवा दिया। पहली बार तो मैने विरोध नहीं किया, सोचा चलो, क्या कर सकते हैं ? दरअसल, करना और कहना तो चाहती थी पर हिम्मत न जुटा पाई। मां पापा का चेहरा सामने आ गया । लोक लाज, इज्जत प्रतिष्ठा का पहाड़ा भी मन में दुहराया। लेकिन, मुझे क्या पता था कि ये तो महज शुरुवात थी। फिर कुछ सालों बाद यही कांड दोहराया गया। पहले शरीर घायल था और अब आत्मा व्यथित हो रही थी। चीखना चाहती थी। चिल्लाना चाहती थी पर आस पास कोई नहीं दिख रहा था एक अदद चेहरा, एक ऐसा कोई इंसान  जो मेरी आवाज सुने और मेरी मदद कर सके। जब तीसरी बार मेरा अबॉर्शन हुआ तो हॉस्पिटल में ही सास ने मेरी घर वापसी से इंकार कर दिया। कहा, ” सुनील, अब इस बार इसे वापस घर लेकर आया तो मेरा मरा हुआ मुंह देखेगा तू।” सुनील के लिए धर्म संकट आ गया। मां को देखे या फिर उस बीबी की चिंता करे जिसने एक छोटी सी मुराद को हमेशा के लिए अधूरा कर रखा था। आखिरकार, मैं हॉस्पिटल में बेड पर अकेली पड़ी रह गई और सारे लोग चले गए। हां, एक काम सुनील ने जरूर किया। फोन करके पापा को बता दिया कि “मिली  हॉस्पिटल में है, आकर मिल लीजिए।”

मां पापा दौड़े दौड़े हॉस्पिटल आए। देखा मेरा बेसुध सा शरीर पड़ा हुआ है और आस पास कोई भी नहीं था। उन्हें तो समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या है। फिर भी मां ने इंतजार किया। पापा तो आग बबूला हुए जा रहे थे। मां ने शांत किया। अगली सुबह मैंने सारी बातें बताई। पापा ने बिना देर किए मेरे ससुराल से मेरी दोनों बेटियों स्वाति और सृष्टि को ले आए। कहीं कुछ नहीं बोला। एक शब्द भी नहीं। मां ने भैया को फोन किया। कहा, ” अभय, जल्दी से चला आ। मिली मुसीबत में है।” हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होकर मैं अपने मायके चली आईं। बता नहीं सकती, क्या हालत थी उस दिन मेरी। पापा रास्ते भर रोते हुए , आंसू पोंछते हुए आ रहे थे। मां मुझे संभाले हुए थी।  स्वाति और सृष्टि इतनी बड़ी जरूर हो चुकी थी कि अपनी मां के आंसू और नाना नानी के दर्द को समझ सके। अपने मायके में जैसे ही मैंने कदम रखा, भैया ने कहा, ” जब तक मैं जिंदा हूं, मिली अब उस घर में दोबारा नहीं जाएगी।” मुझे लगा भैया नहीं, पापा बोल रहे हैं।



जिस घर में मेरी बेटियों को इतने साल पेट भर खाना नसीब नहीं हुआ था, अपने ननिहाल में जन उन्होंने रसगुल्ला खाया तो छोटी वाली बिटिया सृष्टि ने  कहा,   ” वाह !!! आज दो मिठाई एक साथ खाने को मिलेंगे।” सुनकर भैया भी रो पड़े। तकलीफ और दर्द जब बच्चों पर आ जाए तो जिंदगी अक्सर बेमानी सी लगने लगती है।

यहां से मेरा संघर्ष शुरू हुआ। सुनील और मेरे ससुराल वालों ने  मेरी या मेरी बच्चियों की कोई खोज खबर नहीं ली। पापा ने भी संपर्क नहीं रखा। इस बार पापा ने लोक लाज इज्जत प्रतिष्ठा का ख्याल तो किया पर किसी को नुकसान या बदला लेने का कोई इरादा नहीं था। कहते,  ” अब तुम खुद मजबूत बनो। अगर समय पर तुम्हारी बात मान ली होती, थोड़ा और पढ़ा दिया होता, नौकरी हो जाती तुम्हारी, और शादी उस वक्त नहीं करता तो आज ये दिन न देख रहा होता। बेटा, मैं गुनाहगार हूं तुम्हारा। माफ कर दो।” हाथ जोड़ लेते पापा और मैं जमीन में गड़ जाती।

पापा और भैया ने मुझे बीएड करवाया और मैने भी बहुत मेहनत की। स्वाति और सृष्टि को तो पढ़ा ही रही थी, बच्चों के लिए ट्यूशन लेना शुरू कर दिया। भैया कहते,  ” पैसा कमाने के लिए नहीं, अपने कॉन्फिडेंस के लिए ये करो। इतना विश्वास लाओ खुद में कि कल को कोई फिर से तुम्हें नर्क में न धकेल सके।” टीचर्स ट्रेनिंग भी कर लिया मैंने और सरकारी टीचर भी लग गई। चूंकि ट्यूशन पढ़ाया करती ही थी, स्कूल के बाद इसे कंटिन्यू रखा। बेटियों का भी साथ मिला। मां पापा भैया भाभी ने भी एक पल के लिए भी अकेला न छोड़ा।

इस तरह से सात साल बीत गए। स्वाति ने बेहतरीन नंबरों से दसवीं की परीक्षा भी पास कर ली और सृष्टि आठवीं में आकर पढ़ने लगी। मां पापा के चेहरे और दिल दोनों में थोड़ी थोड़ी मुस्कान वापिस आने लगी थी। पर इस दौरान सुनील के कभी भी पलट कर खुद नहीं देखा। हां, ये जरूर था कि रिश्तेदारों के माध्यम से प्रेशर बनवाते पापा पर कि “बेटी को कब तक बिठा कर रखेंगे घर पर। भिजवाइए ससुराल। ऐसा कहीं होता है क्या !!! किस घर में झगड़े नहीं होते।” सबको झगड़ा ही पता था, या, बताया जाता था और असलियत केवल मुझे पता थी या मेरे मायके वालों को। स्वाति और श्रृष्टि ने भी बड़ी समझदारी दिखलाई। कभी भी न सुनील का नाम लिया और न ही चर्चा और अफसोस किया। कभी कभी मन के घाव जरूरत को छोटा बना देते हैं और बहुत कम उम्र में ही मेरी बेटियों ने सच्चाई स्वीकार करना जान लिया था।

इतने सालों पर अचानक व्हाट्सएप मैसेज देखकर सब याद आ गया। लगा आंखों के सामने सिनेमा चल रहा हो। मेरे बारे में उन लोगों के द्वारा फैलाया हुआ बात कि मुझे अभिमान है अपने मायके पर , शायद जाने अंजाने सच ही हो गया था।



इतवार का दिन था। मां पापा मंदिर गए हुए थे। अपनी बच्चियों के साथ मैं छत पर कपड़े सुखा रही थी।अचानक से दरवाजे पर दस्तक दी किसीने। मैं नीचे आई तो देखा सुनील खड़े थें। वर्षों बाद सुनील को देख कर समझ ही नहीं सकी कि क्या करूं? खामोशी से रास्ता देते हुए अंदर बुला लिया और एक मेहमान की तरह उनके लिए नाश्ते का इंतजाम करने लगी। दोनों बेटियां छत पर ही थी। “बिल्कुल भी नही बदली तुम  सात बरस में, यहां तक कि आज भी मेरा ख्याल है तुम्हें  ।”  सुनील मुस्काने की कोशिश करते हुए बोले।उनकी कही बात पर मैं मुस्करा भी नहीं सकी। बस सोचती रही कि किसी अपने के बदलने के बाद बाकी और कुछ बदलना भी कोई मायने रखता है क्या। एक सन्नाटा पसरा रहा। तब तक स्वाति और सृष्टि भी नीचे आ गई।वर्षों से पिता की कमी महसूस करती बेटियों की आँखो में जरूर एक मोह का दीया जलने लगा था।

“मिली ! चलो, घर वापिस लौट चलो। तुम सबके लिए एक नया फ्लैट लिया है। इस महीने के पूर्णिमा को गृह प्रवेश करूंगा। मैसेज तो पढ़ ही लिया है तुमने” आखिरकार, सुनील  ने हिम्मत कर कहा। मुझे तो ताज्जुब हो रहा था कि इतने बरस हो गए पर ये इंसान आज भी नहीं बदला। कहता है ~ गृह प्रवेश करूंगा। ये भी तो कह सकता था, चलो !!! मिलकर नए घर में प्रवेश करते हैं। सुनील मेरे जवाब का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे और इधर मैं और मेरी बच्चियां इस बात को दिखा रही थी कि जैसे कोई अंजान मेहमान घर में घुस आया हो।  बच्चियों के सामने ही, जाते हुए सुनील से आखिरकार मैंने कहा, “केवल मेरे पति की बात है, तो चलिए चलती हूं आपके साथ, पर एक पिता के रूप में आपको स्वीकार करना अब संभव नहीं है। यहीं खड़ी हैं दोनो, स्वाति और सृष्टि, अगर ये आपको माफ कर दे तो फिर चलते हैं हम सब।” अचानक से देखा, स्वाति और सृष्टि दरवाजे पर खड़ी हो गईं और सुनील को बाहर का रास्ता दिखला दिया। जैसे ही सुनील ने दहलीज पार की, मैंने जोर से दरवाजा लगाया, खटाक की आवाज हुई और मैंने अपनी दोनों बेटियों को गले से लगाया।  न जाने कितनी देर तक हम तीनों ही रोते रहे………

 

सुधि पाठकों !!!! हमारा समाज एक स्त्री के ‘स्वाभिमान’ को ‘मिथ्याभिमान’ समझ लेता है। पर, स्त्री बनना और स्त्री बनकर उसी समाज में सर उठाकर जी लेना कोई आसान बात नहीं। मेरी इस कहानी और विचार पर पढ़ने वाले प्रत्येक ह्रदय की प्रतिक्रिया जानने की मेरी इच्छा है……प्रतिक्रिया एवं समीक्षा की प्रतीक्षा में 

#स्वाभिमान

स्वरचित एवं मौलिक

अमित किशोर

धनबाद (झारखंड)

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