अपनापन – नताशा हर्ष गुरनानी

नई नई नौकरी लगी घर से दूर दूसरे शहर में,

यहां किराए का घर लिया, घर के सामने बुजुर्ग दंपति रहते थे।

मैं भी संयुक्त परिवार में रही हूं इस तरह उनको अकेले देखकर मन बार बार उनके बारे में सोचने लगता।

सुबह ऑफिस जाती तो देखती दादी दादा जी को कांपते हाथो से चाय देती और दादा जी भी कांपते हाथों से चाय लेते।

धीरे धीरे दोनो साथ मिलकर घर का काम करते

कोई भी उनसे बात नहीं करता था कभी उनकी भी आवाज नहीं सुनी थी।

शाम को आती तो दोनों को नीरस, थका छत की मुंडेर पर खड़ा देखती। लगता जाकर इनसे बात करू पर फिर कदम रुक जाते।

जब जब इनको देखती मुझे मेरे दादाजी दादी की याद आने लगती और अपने घर फोन लगाकर सबसे बात करती।

रविवार के दिन देखा दादी को काम करने में बहुत तकलीफ हो रही थी पर फिर भी वो काम कर रही थी। दादाजी कही गई थे क्योंकि वो दिख नही रहें थे।

मैं आज गई उनके पास और कहा कि क्या आपकी तबियत खराब है तो उन्होंने जवाब नही दिया।

मैने फिर पूछा मैं कोई मदद करू आपकी तब भी उन्होंने जवाब नही दिया।



मैं हैरत में थी फिर दादाजी अंदर आए उन्होंने भी कोई बात नही की

मैने ही पहल करके उनसे कहा कि दादी जी की तबियत मुझे खराब लग रही है इसलिए मैं आई हूं यहां।

आपकी कोई मदद मै कर सकती हूं क्या तो उन्होंने मुझसे इशारों में बात की।

और बताया की दादी जी न सुन सकती है ना बोल सकती है और वो भी बोल नहीं सकते सिर्फ सुन और समझ सकते है।

फिर उन्होंने दादी को कुछ इशारों में कहा और दादी ने मेरे सिर पर हाथ रखा।

मैं उन दोनो को अपलक देखती रहीं और आंखे गीली होती रही।

फिर तो जब तब मैं उनके यहां समय मिलने पर चली जाती थी बहुत प्यार करते वो दोनो मुझे।

अब तो उनकी इशारों वाली प्यारी भाषा मै भी समझने लगी थी।

एक दिन मैने दादाजी से पूछा कि आप दोनों अकेले क्यों रहते है आपके बच्चे या कोई और नहीं है।

तब दादाजी ने दादी को इशारों में बताया कि मैं क्या पूछ रही हूं।

तब दोनों मुझे छत की मुंडेर पर ले आए और आंखो में आए आंसू पोंछते हुए  एक साइकिल की तरफ इशारा किया

साइकिल देखकर ही समझ गई कि इस साईकिल की फ्रेम में लगी बच्चे की गद्दी बता रही है कि परिंदे उड़ चुके है बस यादें शेष है..

मैं भी उनको रोते देख भावुक हो गई और दोनो के गले लग गई।

दोनो ने इतना प्यार लुटाया मेरे ऊपर जो सालो से दबा रखा था उनके सीने में।

नताशा हर्ष गुरनानी

भोपाल

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