अनुपमा – पुष्पा पाण्डेय

कुछ दिनों से बुआ भी अनुपमा नाम से ही बुलाने लगी अनुपमा को। आज की अनुपमा कल की सोना थी। जब पाँच महीने की थी तभी दादी ने इसकी सूबसूरती को देखकर इसका नाम सोना रखा था। सचमुच विधाता ने उसे फुर्सत में बनाया था। बड़ी हुई तो उसके शील स्वभाव और खूबसूरती को देखकर कई रिश्ते आने लगे। अब चुनाव सोना के माता-पिता को करना था। एक रिश्ता जम ही गया और वह एक अच्छे सुलझे विचारों के खाते-पीते परिवार की बहू बन गयी।

ससुराल में वह सबकी चहेती बन गयी। एक दिन पति ने नाश्ते के टेबुल पर ही सबके सामने ही कह दिया।

” माँ आज से इसका नाम सोना  नहीं अनुपमा होगा। जिसकी उपमा न हो। इसके हाथों का बना ढोकला का कोई जवाब नहीं।”

और सभी हँसने लगे। देवर ने भी चुटकी लेते हुए कहा।

” हाँ भाई, आज से तो मैं अनुपमा भाभी ही कहूँगा। वैसे सोना भाभी से अनुपमा भाभी कहना ज्यादा अच्छा लगता है।”

और सचमुच सभी उसे अनुपमा ही कहने लगे। शुरू-शुरू में तो सोना को अजीब लग रहा था। उसके कर्ण सोना सुनने के जो आदि थे। इतनी जल्दी अनुपमा कैसे स्वीकार कर लेते। ————-

समय बीतता गया और धीरे-धीरे सोना नाम ससुराल में गुम होता गया। समय के साथ अनुपमा, हाँ अनुपमा ही तो है- जुड़वे बच्चे को जन्म दिया। एक बेटा और एक बेटी। घर में खुशियों की लहर दौड़ गयी। मुश्किल हुई, लेकिन दोनों बच्चे स्वस्थ थे। बच्चों की परवरिश में सासु माँ ने भरपूर सहयोग दिया। बच्चे तीन साल के होते ही स्कूल जाने लगे। देवर की शादी भी सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गयी। देवर की नौकरी विदेश में थी वो बहू लेकर चला गया। अब फुर्सत से सासु माँ ने कुल-देवी की पूजा के लिए गाँव जाना चाहती थी। माता-पिता की उम्र को देखते हुए बेटा ने मना किया, यहाँ तक कि वह स्वयं अनुपमा के साथ जाकर पूजा करने को तैयार था, लेकिन सासु माँ अपने हाथों देवी की पूजा करना चाहती थी। इसी बहाने गाँव जाकर सबसे मिलना भी चाहती थी।फिर क्या पता कब मिलना हो या नहीं।




माँ की इस भावनात्मक बातों को सुनकर स्वयं अपनी कार से  माता-पिता को लेकर गये। दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर गाँव गये, दो- तीन दिन रहे। पूजा के साथ सबसे मिलना वगैरह हुआ और खुशी- खुशी वापसी के लिए चल पड़े।

परमात्मा का खेल भी अजीब होता है। कौन जानता था कि कुल-देवी की पूजा कर वे लोग वापस नहीं लौट पायेंगे। रास्ते में ही कार दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। माता- पिता वहीं अंतिम साँसें ली और बेटा तीन दिन तक जिन्दगी और मौत से जूझता हुआ वो भी माता-पिता के पास चला गया। अब अनुपमा की दुनिया ही उजड़ गयी। दो छोटे-छोटे मासूम बच्चों के साथ जिन्दगी अभिशाप बन गयी। देवर विदेश से आया और श्राद्ध-कर्म समाप्त होते ही चला गया। अनुपमा अकेली पड़ गयी। उसके अपने माता-पिता भी काफी बुजूर्ग थे। एक भाई था जिसका अपना परिवार और अपनी व्यस्तता थी। वे लोकतांत्रिक थे कि अनुपमा मायके आकर रहे, लेकिन अनुपमा किसी के ऊपर बोझ नहीं बनना चाहती थी। वैसे अनुपमा को आर्थिक परेशानी  नहीं थी। बच्चों के साथ एक नयी शुरुआत की। आखिर थी तो अनुपमा, जिसकी कोई उपमा न हो।

बच्चे जब स्कूली शिक्षा समाप्त कर बाहर पढ़ने के लिए चले गये तो अनुपमा ने वक्त का सही उपयोग किया और घर में ही आस- पास के गरीब बच्चों को बुला कर पढ़ाने लगी।

शिक्षा पूरी कर बेटा अपने चाचू के पास चला गया और बेटी की शादी उसके पसंद के लड़के से कर एक जिम्मेवारी से मुक्त हो गयी।

एक रिश्तेदारी में शादी के दौरान उसे अपनी बुआ से मुलाकात हुई। उसकी अपमान जनक व्यथा सुन अनुपमा ने उन्हें अपने साथ रहने की सलाह दी। बुआ बड़ी-पापड़ के लघु उद्योग से जुड़ी हुई थी, फिर भी बेटा-बहू घर अपने नाम कराने के लिए दिन- रात  अपमानित करते रहते थे।




कुछ ही दिन बाद बुआ भी आकर यहीं रहने लगी और अपना काम भी अनुपमा की मदद से यहीं करने लगी। घर आकर मंडली के लोग बुआ के हाथों का बड़ी-पापड़ ले जाया करते थे। बुआ के साथ और कुछ महिलाएँ भी हाथ बटाने लगी। इसके बदले उन्हें आर्थिक रूप से मदद मिलती रही।

अनुपमा को भी अकेलापन से राहत मिली। अब अनुपमा दूसरों के लिए प्रेरणा बन चुकी थी। बिपरीत परिस्थियों में भी धैर्य और हिम्मत के साथ बच्चों को सम्भाला और अब कई बेसहारों को भी सहारा देने के काबिल थी। पति भविष्य द्रष्टा थे, तभी तो अनुपमा नाम दिया।

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!