आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था – मीनाक्षी सिंह

तो बात उन दिनों की हैँ जब मैं आर्मी क्वार्टरस में रहा करती थी ! पापा ,मैं ,मम्मी और मेरे छोटे दो भाई बहन ! हुआ कुछ यूँ कि सरकारी फरमान आया फौज से कि  सभी के घरों के बिजली तारों को दिवारों  के अंदर किया जायेगा ! इसके लिए सभी के क्वार्टरस की दीवारें खोदी जाने लगी ! हमारे घर का भी नंबर आया ! माँ पापा पर गुस्सा भी बहुत हुई कि कहीं और रहने की व्यवस्था कर दो ! घर में काम चलते हुए रहना बहुत मुश्किल हैँ ! इतनी धूल मिट्टी तोड़ फोड़ मुझसे नहीं देखी ज़ायेगी ! मम्मी का वही पुराना डायलोग – फौज बिना  दिमाग के कभी भी कुछ भी फरमान जारी कर देती – चाहे आधी रात हो य़ा दिन ! दूसरों की तकलीफ तो दिखती नहीं इन्हे ! पापा का भी वहीं कहना – खिला तो सरकार रही हैँ ,उसके हुक्म का पालन भी तो करना पड़ेगा ! मेरी बीवी तो एक्सपर्ट हैँ ,एक दिन में घर साफ कर देंगी ! माँ को अंत में हार माननी पड़ी ! घर में बहुत धूल मिट्टी हुई ! हम सबने मिलकर काम होने के बाद सफाई की ! पापा ने सबके लिए नमकीन चावल बनाये ! वो दिन भी य़ादगार था !

काम तो हो गया पर एक बहुत ही अद्भूत बात हुई ! एक बड़ी सी छिपकली दीवार में फंस गयी ! उसके ऊपर सीमेंट हो गया था ! उसका बस मुंह कोने से दिखता था जहां थोड़ी सी जगह थी ! मुझे बहुत डर लगता जब भी किचेन में जाती ! उसके बाद हमारी गर्मी की छुट्टी हो गयी ! हम सब एक महीने के लिए अपनी नानी  के घर चले गए, पापा ट्रेनिंग पर राजस्थान ! घर एक महीने के लिये बंद हो गया ! मैं खुश थी चलो जब तक लौटकर आयेंगे ,छिपकली भूखी प्यासी ,फंसी फंसी मर जायेगी ,पर यह क्या उसका मुंह पहले से भी ज्यादा बड़ा हो गया था ! हम सब चकित थे की इतने दिनों तक बिना  खाये पीयें ये जीवित कैसे रही ! पर क्या देखते हैँ ,उसकी सहेलियां ( दूसरी छिपकलियां ) चुपके से अपने मुंह में कीड़ा दबायें आती ,और उस दीवार वाली छिपकली के मुंह में डाल देती ! एक नहीं तीन चार छिपकली खाना लेकर आती उसके लिए ! तभी बिना मेहनत किये  खाना खा खाकर वो दिन पर दिन स्वस्थ होती जा रही थी ! अपनी सोच से मैं उन छिपकलियों को उसके रिश्ते में समझने लगी थी ! एक पतली लम्बी आती ,उसे उसकी पत्नी समझती ! दो थोड़ी छोटी आती उन्हे उसके बच्चें ! एक थोड़ी फौजी जैसी लगती उसे उसके दूर के फौज के चाचा ,जो कीड़ा नहीं लाते ,खाली हाथ चले आते ,हाल चाल लेते ! कुछ देर वहाँ सहानुभूति के लिये रुकते ! जैसे लगता कह रहे हो ,होनी को कोई नहीं टाल सकता ! होता वहीं हैँ जो ऊपर वाला चाहता हैँ ! दुख दियें हैँ तो भोगने पड़ेंगे ! इतना कहकर चाचा जी चलते बनते ! आज कल कुछ नई छिपकली भी दिख रही थी उसके आस पास जो  दीवार को तोड़ने का भरसक प्रयास कर रही होती कि थोड़ा भी टूट गया तो हमारी सहेली बाहर आ जायेगी ! माँ तो कहती पापा से थोड़ा खोद दो ,निकल आने दो पर पापा कहते रेत गिरती रहेगी उसके अन्दर चीटी निकलेगी ! क्या पता आर्मी के पुराने घर हैँ पता नहीं अंदर क्या क्या निकले ! ये कहके हमें डरा दिया पापा ने !




ठंड का मौसम आ गया ! अब हम सोचें कि सब छिपकली छुप जायेंगी ठंड से ! तब तक ये भी शायद मर जायें ! पर अभी तो जीवों के और अद्भूत कारनामें देखने थे ! पूरी ठंड सारी  सहेलियां निरंतर आती रही और उसे खाना खिलाती हैँ हाँ ये ज़रूर था की अब ज्यादा समय के लिए नहीं आती थी ! कीड़ा देकर ये बोलकर – ठंड ज्यादा हैँ भाई ,पेट तो भरना ही पड़ेगा तुम्हारा ! अब कल मिलते हैँ ,चली जाती ! अब हम वहाँ नहीं रहते पर वो बात अभी भी याद आ जाती हैँ !

पाठकों ,हैँ ना ये अद्भूत बात ! हमें तो अभी भी इस बात पर विश्वास नहीं होता कि ऐसा जीव प्रेम भी हो सकता हैँ क्या  ज़िनमें हमारे ज़ितना दिमाग नहीं ! ये तो इंसान से भी ज्यादा धनी हैँ निहस्वार्थ प्रेम के मामले में !

कैसी लगी जीव प्रेम रचना ,बताईयेगा ज़रूर !!

स्वरचित

मौलिक अप्रकाशित

मीनाक्षी सिंह

आगरा

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