“अनकहे दर्द” – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा : Moral Stories in Hindi

“हैलो ….हैलो… हैलो … 

हैलो…  माँ… माँ …..माँ ?”

“रिंग तो हुआ है और शायद कल भी रिंग हुआ था। किसी ने फोन उठाया भी था पर उधर से कोई आवाज नहीं आई । माँ ही होगी….! लेकिन… माँ रहती तो कुछ तो बोलती…!” 

  खुशी इधर लगभग महीने भर से अपनी माँ से बातें करने के लिए आतुर बनी हुई थी। ससुराल में लोगों के जमावड़े के कारण उसे फुर्सत नहीं मिल पाता था कि वह दो पल सुकून से बैठ सके। सुबह से शाम और शाम से रात तक वह एक पैर पर रसोई घर में खड़ी रहती। उसके लिए किसी को कोई सहानुभूति नहीं थी। वह थकती भी होगी इसकी परवाह किसी को भी नहीं था। फिर भी उसने कभी कोई शिकायत नहीं की। 

    खुशी ने अपने मन को समझाया -“अच्छा थोड़ी देर बाद करती हूँ….।”लगता है माँ किसी काम में व्यस्त रही होगी  इसलिए कुछ बोली नहीं । माँ को भी तो हजारों काम रहता है।  किसी ने बताया था कि भाई  घर छोड़कर कहीं और शिफ्ट हो गया है। उसने यह भी तो सुना था कि बाबुजी की तबीयत खराब रहती है बेचारी उनकी सेवा में लगी रहती होगी। खुशी को भली भांति पता था कि सारी घटनाओं का जड़ कौन है। 

बाबुजी का ध्यान आते ही खुशी उदास हो गई। बाबुजी आँख खुलते ही  खुशी बेटा, खुशी बेटा की झड़ी लगा देते थे  उसे क्या पता था कि उन्हें देखने के लिए उसकी आंखे भी तरस जायेंगी। 

इन्हीं विचारों में उलझी खुद को कोसती खुशी घर की सफाई में लग गई । आज बहुत काम है सुबह -सुबह सासु माँ का फरमान जारी हुआ है कि खाने में कुछ अच्छा बनाना है जिसमें  कुछ मीठा होना चाहिए। क्योंकि नीति यानि खुशी की नन्द आ रही है। विवेक  कल ही चला गया था उसे लेने। साल भर हुए हैं उसकी नन्द  की शादी को लेकिन इतने में ही नीति पांच बार आ चुकी है। उसके आने को लेकर हमेशा सासु माँ कहतीं  -” बेटियां तो घर की रौनक होती हैं तीज त्योहार पर आ जाए तो वह रौनक दुगुनी हो जाती है और वैसे    …..  कहते हैं कि ससुराल स्वर्गलोक है तो मायका बैकुंठ धाम  !” 

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सही ही तो कहा गया है मैके बैकुंठ धाम होता है जहां माँ बाप भगवान की तरह होते हैं। मैके का ख्याल आते ही खुशी की आँखों में आंसू भर आये।  आँखों में आये उन आंसुओ के हरेक बूंद में उसके रूह की तड़प और  दर्द छुपे थे जो समय- समय पर उसकी आँखों से बहने लगते थे। बेचारी के पास इन आंसुओ के सिवा कोई और था भी तो नहीं जो उसके दर्द को सुन लेता। काश! दर्द की भी कोई जुबान होती। ” 

“बहु क्या कर रही हो, कितना समय लगा रही हो सफाई में?” 

सासु माँ की कड़कती आवाज सुनते ही खुशी ने जल्दी- जल्दी अपनी आंखें पोंछ ली और बिछावन के चादर को बदलने लगी । उसे हरदम डर लगा रहता था कि किसी की नजर उसकी आँखों में आये आंसुओं पर ना पड़े ।

पिछले राखी की ही बात है देवरानी का भाई आया था वह बहुत खुश थी। भाई -बहन का प्यार बढ़- चढ़ कर दिखा रही थी। राखी के बांधने के बाद मिठाई खिलाते वक्त उसके भाई की चुहलबाजी देख सब घरवाले हँस-हँस कर लोट पोट हो रहे थे।  उनके निशाने पर खुशी ही थी। खुशी अपने आपको सहज करने के लिए रसोईघर में बर्तनों  के साथ उलझ गई थी। उसे रह -रह कर अपने भाई की सुनी कलाई याद आ रही थी और उसकी आंखे गिली हो चली थीं। 

घर  का सारा काम लगभग पूरा हो चुका था। अभी विवेक और नीति को आने में घण्टे भर की देरी थी। खुशी ने सोचा एक बार फिर से बात करने की कोशिश कर के देखती हूं कहीं माँ अपने कामों से निबट गई होगी। उसने नंबर डायल किया रिंग तो होने लगा…खुशी की आस बंधने लगी  इस बार वह माँ से बात कर पाएगी। 

हैलो…हैलो  ….  माँ…..माँ  रिंग हो रहा था 

  खुशी की धड़कन बढ़ रही थी….जल्दी ही माँ से बात हो जाती तो ठीक रहता वर्ना फिर कोई बीच में टपक पड़ा तो मुश्किल हो जाएगा। पूरा का पूरा रिंग होकर कट गया पर माँ ने फोन नहीं रिसीव किया। माँ  क्यूँ नहीं रिसीव कर रही है फोन। 

खुशी की मन की बेचैनी बढ़ रही थी जो फिर एक बार आंसुओ  में बदलकर आँखों से निकलने लगा। 

मन मसोसकर वह अपने कमरे से बाहर निकलने लगी तभी फोन की घंटी बजी….खुशी ने “चील” की भांति झपट कर मोबाइल उठाया…माँ…माँ…..तू कहां थी मेरा फोन क्यूँ नहीं उठाया?  मैं आज सुबह से ही तुझे फोन लगा रही थी। 

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उधर से आवाज आई -“” आपने किसको फोन लगाया है ? गलत जगह लगा है। चेक कर के लगाया कीजिए ।” 

-“माँ तू ऐसे क्यूँ मुझसे बात कर रही है । तेरी आवाज  भी बदल गई है। मैं तेरी खुशी तेरी बेटी बोल रही हूँ “। 

-“बेटी…कौन सी बेटी…? अरे आप क्यूँ नहीं समझ रही हैं गलत नम्बर है फोन रखिए । ” 

फोन रखने के हड़बड़ाहट में हाथ से फिसल गया ।खुशी भय से सहम गई कहीं कोई फोन गिरते देख लिया तो फिर पूरे घर में बवाल होगा। 

खुशी को विश्वास नहीं हो रहा था कि उसने गलत नम्बर डायल किया था….माँ अपनी बेटी को कैसे भूल सकती है। पिता को कठोर होते सुना था पर माँ को नहीं…. खुशी भारी कदमों से से चलकर अपने बिस्तर तक आई और कटे पेड़ की तरह गिरते हुए सुबकने लगी। पता नहीं कब अपने रिसते हुए दर्द को आँखों में समेटे उसे नींद आ गई। 

विवेक के ठहाकों की आवाज से उसकी आंखे खुली शायद वे लोग आ गए थे। खुशी ने जल्दी से उठकर अपने आप को संभाला और आईने में खुद को देखा। गालों पर सूखे आंसुओ के निशान थे उसे पानी से धोया और दुबारा से चेहरे पर क्रीम पाउडर लगा कर तैयार हो गई। खुश होने का नाटक तो करना ही था सो हँसते हुए कमरे से निकली। नन्द से गले मिली और उसका हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले आई। 

बेटी को देख सास -ससुर बहुत खुश थे। दोनों भाई भी बहन को देख फुले नहीं समा रहे थे। पूरे घर में हसीं ठहाकों का दौर जारी था। विवेक तो जैसे खुशी  को भूल ही गया था। जब से आया था बाहर बैठक में ही जमा हुआ था। 

वह सोच रही थी कितना बदल गया है  विवेक…एक पल के लिए ओझल होने पर शिकायतों की झड़ी लगाने वाला …. हरेक बात पर जान देने की बात कहने वाला विवेक । महज  तीन  साल में ही दो -दो दिनों तक उसकी खोज खबर नहीं लेता है। उसे तो लगता है जैसे उसने किसी काम वाली को ब्याह कर लाया है। उसके हुकुम की गुलाम। मैके में एक ग्लास पानी खुद से लेकर नहीं पीने वाली खुशी आज ससुराल में सबकी  टहलूआ बनी हुई है। खुशी का कलेजा अंदर तक कचोट गया। 

रात में खाने के टेबल पर सब ने खुशी के हाथों के बने  खीर की प्रशंसा की। तभी सासु माँ ने एलान किया  बहु कल भाई दूज है तो सारे पकवान अच्छे से बनने चाहिए । छोटी बहु तो अपने भाई से मिलने जाएगी तो तुमको थोड़ा ज्यादा जिम्मेदारी निभाना पड़ेगा…. ठीक है न कोई दिक्कत तो नहीं ना है। 

खुशी के कुछ बोलने से पहले ही देवरानी ने व्यंग्य भरी आँखों को झपकाते हुए कहा-” भाभी आपका  मैं सहयोग कर देती लेकिन फिर मुझे देर हो जाएगी न  मैके जाने में।  भाई दूज  है न ! लेकिन आपको  इसके महत्व का क्या पता… वो कभी न मिलने आता है और न आपको लेने!” 

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देवरानी ने अपने व्यंग्य के तीर से उसके दिल के दुखते ज़ख्मों को कुरेद दिया । वह वहां से उठकर नजरे चुराते हुए जूठे  बर्तनों को लेकर रसोईघर में जाने लगी तभी सासु माँ ने जले पर नमक छिड़क दिया

-” …..बेचारा कौन सा मूंह लेकर आएगा। इसने तो  सब से नाता ही तोड़ लिया। अब कौन सा भाई और कौन सी बहन!” 

खुशी ने सोचा भी नहीं था कि उसकी गलतियों के कारण उसे यह सब सुनना पड़ेगा। सबसे ज्यादा गुस्सा उसे विवेक पर आया। वह ऐसे मौकों पर मूक दर्शक बन जाता था। कई बार जब वह आहत हो रोने लगती थी तो विवेक की भृकुटी तन जाती थी और वह बोल देता-” तुमने काम ही ऐसा किया है सुनना तो पड़ेगा ही ….समझी… क्यूँ कर ली शादी यह सब तो पहले सोचना था न!” 

क्यूँ ….क्या शादी करने का फैसला सिर्फ उसी का था।”

विवेक के बहकावे में आकर ही खुशी ने अपने आँख पर पट्टी बाँध लिया था और अपने माँ बाप और उनके संस्कारों की इज्ज़त को धूल में उड़ा दिया था। उसे क्या पता था कि विवेक रंग बदलने में गिरगिट को भी फेल कर देगा। 

अगले दिन जब सारे काम- धाम निपट गए। परिवार के सभी सदस्य खा -पीकर  बाहर लॉन में गप्पे मारने बैठे  तभी खुशी ने हिम्मत बटोरी और माँ को फोन

लगाया…

” हैलो” … हैलो…”माँ” …फोन उठा लो प्लीज पर

माँ ने फोन रिसीव नहीं किया। खुशी ने आज ठान लिया था कि जो भी हो आज वह माँ से बात कर के रहेगी ।अब और नहीं….नहीं अब वह अपने दर्द के बोझ को नहीं ढो सकती। वह एक हाथ से लगातार नम्बर डायल करती रही और दूसरे हाथ से अपने आंसुओ को पोंछ रही थी जो आज अपनी सीमाओं को तोड़ चले थे उन्हें जबरदस्ती रोकती रही… 

“क्या…

उसके दर्द की आवाज माँ के दिल तक पहुंच गई थी।” 

माँ ने फोन उठा लिया था। वह छूटते  ही बोली- 

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“माँ  तुम्हें मेरी याद नहीं आती कभी  …

कितनी सजा दोगी मुझे…जितने भी देना हो दे दो पर ऐसे मूंह मत फेरों मुझसे अपनी बेटी से माँ… माँ तुम सुन रही हो ना।”

“खुशी…  खुशी हूं मैं तुम्हारी!” 

 माँ मैंने गुनाह किया है … हाँ मैंने तुम्हें  खुश रहने लायक नहीं  छोड़ा । मेरे माथे पर चढ़े प्यार के बुखार ने मेरे परिवार की खुशियां और मुझसे मेरे माँ -बाप , भाई सब छीन लिये । मुझे अब एहसास होता है कि मेरे प्रेम विवाह की वेदी की आग ने  पूरे घर की खुशियों को जलाकर श्मशान बना दिया।  

“माँ… मेरे एक हठ ने मुझे अपने ही नजरों में गिरा दिया है । मुझे मेरी आत्मा ने  तिरस्कृत कर दिया है। मैंने छलावे में आकर तुम सब का दिल तोड़ा है। मैं बाबुजी से कैसे माफी मांगू  … वो मुझे माफ कर देंगे। 

   मैंने बाबुजी के माथे  से प्रतिष्ठा की पगड़ी उतार कर उस पर कलंक का टीका लगाने का अपराध किया है।  मैं पश्चाताप की आग में जल रही हूँ ।” 

“माँ …तू सुन रही है ना….  ! तुमने कोई जबाव नहीं दिया  अब अगर तूने माफ नहीं किया न तो…  मैं अपनी जली आत्मा की चिता में भी चैन नहीं ले पाऊँगी ।” 

  शायद उसे नहीं पता कि उधर से फोन कट चुका था । लेकिन खुशी की ग्लानि अनवरत शब्दों के रूप में बहे जा रही थी। उसके दर्द का सैलाब  इतना तीव्र था कि उसे पता ही नहीं था कि उसकी आवाज कोई  सुन रहा था। 

जब  खुशी को इसका एहसास हुआ तो वह फुट- फुट कर रोने लगी। उसके द्वारा कहे गए उसके सारे “अनकहे दर्द”वापस लौटकर उसके कानों में शीशे की तरह पिघल- पिघल कर उसके रूह को छलनी करने लगे थे। और वह अपने दर्द के साथ अकेली औंधे मूंह तकिये  से लिपट कर रो पड़ी थी । 

“मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन….आवाजों की बाजारों में ख़ामोशी पहचाने कौन!” 

स्वरचित एवं मौलिक 

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 

मुजफ्फरपुर, बिहार

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