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आखिरी चाहत – प्रीति सक्सेना

   अभी तक  तुम आए नहीं,…… सोचा तब तक कोई प्यारी सी गजल सुन लूं ,कभी कभी कितने खास और दिल को छू जाते हैं न ये गाने , ये ग़ज़ल ….मानो हमारे ही लिए लिखे गए हों… सुनते सुनते गाल आरक्त से हो गए हैं ,मैं चालीस साल पहले पहुंच गईं हूं जब तुम हम , एक दूसरे की जिन्दगी में दाखिल हुए थे….. तब मेरी कल्पनाओं और चाहतों का केंद्र तुम सिर्फ़ तुम थे, मेरा जीवन तुम्हारे सिर्फ तुम्हारे इर्द गिर्द घूमता था, तुम ही तुम मेरे ख्यालों में रहते… कुछ और दिखता ही कहां था मुझे.. सच.. सपनों से भरे दिन थे,  रंगो से भरी रातें थीं!!

 

   अरे… दूसरा गाना शुरु हो गया…. ” शान “याद आ गया… मेरा बेटा मेरा लाल… जिसने मेरे मातृत्व को पूर्ण किया… जिसने एक ही पल में हमारा प्रमोशन कर दिया… हम पेरेंट्स बन गए.. कितना अजीब सा लगता था न हम इतने बड़े हो गए??

मां कहलाने की मेरी चाहत पूरी हुई!! आप भी तो पापा बन गए!!

 

       हम दुनियादारी में उलझने लगे, बेटे के उज्जवल भविष्य को संवारने सजाने की चाहत दिल में लिए अपने आपको झोंकने लगे… कभी कभी एकटक एक दूसरे को देखकर ,सोचते अभी तो हम दोनों ही अल्हड़ से हैं…. क्या जरूरी था इतनी जल्दी जिम्मेदारियों में उलझना.. मेरे चेहरे पर उदासी के बादल देखते ही तुम  मुझे गुदगुदा कर हंसा हंसाकर मेरी हालत खराब कर देते.. हम एक दूसरे का हाथ जोर से पकड़कर अपनी गिरफ्त बहुत मजबूत कर लेते…. कभी अलग न होने के लिए !! 

 




     समय बीतता गया और चाहतों की फेहरिस्त भी… बढ़ती चली गई, पर ये फेहरिस्त हमारी नहीं बल्कि तेजी से बढ़ते समय ने बनाई थी जो तेज रफ्तार से भागा जा रहा था और हमें भी साथ भगाए जा रहा था!!

 

     अब हमारी चाहतों का रंग रुप बदल गया उसमें हमारे बेटे की चाहतों के रंग भर गए. पर रंग भी तो माता पिता ही भरते हैं न हम अपने बदरंग रंगो से भी रंग चुराकर, बेटे के सपनो में रंग भरते रहे, बहुत कीमती होते हैं ये रंग इनमें पानी नहीं…. माता पिता के आंसुओ और पसीने की नमी होती है!!

 

     बेटा शानदार कंपनी में बड़ा ओहदा पा गया, खूब सारे तोहफों से हमें ढक दिया, हम तो इतना खुश हो गए कि एक नई चाहत पैदा कर बैठे….. एक बेटी जैसी बहू लाने की, सारे रंग बहू के लिए जमा करने लगे, बेटा अपने साथ काम करने वाली लड़की को बहू बना लाया, एक चाहत जो मेरी थी, बहू खुद पसन्द करने की… वो पूरी न हो सकी, पर चुप रही, आखिर बेटे की पसन्द की है, उसकी पसन्द हमारी पसन्द!!

 




      हम बहू की पसन्द न बन सके, शायद उसकी पसन्द के खांचे में फिट न हो पाए, होना क्या था, हम अपने घर और अपनी जिंदगी में वापस फिट हो गए…. “अरे तुम आ गए.. बहुत देर लगा दी..  बैठो चाय बनाती हूं”

 

   एक चाहत का जिक्र तो करना भूल ही गई, जैसी दीवानगी हमारी एक दूजे के लिए पहले थी वो अब दोबारा होने लगी है….. मुझे तुम्हारे सिवा कुछ दिखता ही नहीं सच……… आखिरी चाहत ईश्वर से पूरी जरूर करना चाहती हूं….. हम जब भी जाएं एक साथ जाएं ,मैं तुम्हें

छोड़कर नहीं जा सकती, किसी कीमत पर भी नहीं

 

 हर चाहत अधूरी ही रही

आखिरी तो पूरी कर ही देना मेरे प्रभु……

 

#चाहत

प्रीति सक्सेना

इंदौर

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