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अकेली नहीं अब वह! – प्रीति आनंद

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“क्या लक्ष्मी, कब तक इस नाशुकरे का पेट भरोगी? निकालो घर से! तुम्हारी ज़िम्मेदारी थोड़ी है ये!”

माँ की बात सुन लक्ष्मी चौंक गई। भुवन के लिए ऐसा कैसे बोल सकती हैं माँ? भुवन…. उसका देवर …. जो बेटे के समान है!

आठ वर्ष पहले जब उसके सास-ससुर की ऐक्सिडेंट में मृत्यु हुई तो भुवन सिर्फ़ छह साल का था। दो वर्ष पहले कैन्सर की वजह से उसके पति प्रकाश नहीं रहे। दिन भर भाभी माँ-भाभी माँ करता रहता। अंकुश व रिया को भी सम्भाल लेता। वह स्कूल में टीचर थी। उसके वेतन व प्रकाश के पेंशन से गुज़ारा हो रहा था। ख़ैरियत यही कि मकान अपना था!

“कहाँ जाएगा माँ, उसका परिवार है यह। उसने बचपन से हमें ही देखा है।”

“ठीक है न जाए तो कम से कम कुछ आर्थिक मदद तो करे। अकेले खटती रहती हो तुम। स्कूल से निकाल कर कहीं किसी दुकान में नौकरी पर लगा। चार रुपए आएँगे तो बड़ी मदद होगी।”

“नहीं माँ, उसका भी बचपन है, खेलने पढ़ने की उम्र है, बड़ा होगा तो सब करेगा।”

भुवन को दरवाज़े की ओट में कान लगा कर सब सुनता देख लक्ष्मी ने आवाज़ लगाई, “भुवन, जा बाहर, बच्चों के साथ खेल। अंकुश को भी ले जा।”

अगली दोपहर जब भुवन स्कूल से वक़्त पर घर नहीं आया तो लक्ष्मी परेशान हो गई।

“कहीं माँ की बातों का बुरा तो नहीं मान गया?”कुछ देर बाद घर पहुँचा। सीधे उसके पास आया और उसके हाथों से दस रुपए पकड़ाए।

“कहाँ चला गया था? मुझे कितनी चिंता हो रही थी। और ये पैसे कहाँ से आए?”

“भाभी माँ, रास्ते में फल-सब्ज़ी की अन्लोडिंग हो रही थी तो मैंने मदद कर दिया। उन्होंने फिर मुझे दस रुपए दिए!”

” हाथ बँटाना तो ठीक है भैया पर किसी की मदद करो तो पैसे थोड़ी न लेते हैं! आगे से ध्यान रखना।”

कुछ दिनों बाद भुवन स्कूल से घर लौट कर नहीं आया ही नहीं! माँ से पूछा तो वे ख़ुश हो गईं।

“चल अच्छा हुआ, पीछा छूटा। कब तक उसकी सेवा करती तुम? मुझसे तुम्हारा दुःख देखा नहीं जाता! लगता है मेरी बात का असर हो गया।”

“आपकी बात? क्या कहा था उससे आपने?”


“यही कि अपनी देखभाल करना सीख! कबतक मेरी बेटी की छाती पर मूँग दलता रहेगा?”

“आपने किस हक़ से ऐसा कहा? इस घर पर उसका उतना ही ही है जितना अंकुश व रिया का!”

“तेरी कमाई……”

“मेरी कमाई? और उसके भाई के पेंशन का क्या? ये घर उसके माता-पिता ने बनवाया था, मैंने या आपने नहीं!”

“मैंने तो तेरे भले के…..”

“रहने दीजिए आप! मेरा भला-बुरा जानती यो ये सब नहीं करतीं! अपनी मृत्यूशय्या पर प्रकाश ने मुझसे वादा लिया था कि मैं भुवन की देखभाल अपने बेटे की तरह करूँगी।और आपने उसे घर से निकाल दिया? अब मैं उसे क्या जवाब दूँगी?”

फूट-फूट कर तो पड़ी वह।

उस बात को चौदह साल हो गए थे।अब अंकुश इंजिनीयरिंग के तृतीय वर्ष में था। रिया का अगले हफ़्ते विवाह होना है। ढेर सारी तैयारियाँ करनी है। इन्हीं सब उलझनों में उसे अपनों की बहुत याद आ रही है। किसी रिश्तेदार से कोई उम्मीद नहीं उसे। जब उसकी कठिन घड़ी में किसी ने उसकी मदद को हाथ नहीं बढ़ाया तो विवाह के मौके पर तो वह किसी पर भरोसा नहीं कर सकती! हर काम उसे खुद देखना पड़ रहा है।

थकान के मारे लक्ष्मी की आँख लग गई।

“भाभी माँ, मैं आ गया हूँ, अब मैं सब संभाल लूँगा। आप आराम कीजिए।”

नींद खुली तो वहाँ कोई नहीं था। सपने भी मृगतृष्णा के समान ही होते हैं… जो मन में होता है दिल वही दिखा देता है!

अचानक कोई अंदर आकर उसके पाँव छूने लगा। वह चौंक गई।

“कौन हो तुम? मैंने पहचाना नहीं!”

उसकी आँखों में संशय देख वो बोल पड़ा,

“मैं आपका… भुवन!”

“भुवन!”

“जी!”

“तुम कहाँ थे….. कब आए…. क्यों चले गए थे… ऐसे क्यों गए तुम?….. हमारी याद भी नहीं आई…? एक बार भी सोचा नहीं की भाई का परिवार किस हाल में होगा?..”

“बस बस भाभी माँ! एक पल को भी नहीं भुला आपको, अपने परिवार को। कुछ लायक बन जाऊँ जिससे मेरी भाभी माँ मुझ पर फ़ख़्र करे, बस इसीलिए चला गया था। सब बताऊँगा भाभी, पर फ़ुरसत से। अभी तो बहुत काम है। रिया के शादी की सारी ज़िम्मेदारी अब मेरी है। आप बस बताते जाइए क्या-क्या करना है!”

शायद ये सुबह का सपना था इसीलिए सच हो गया। लक्ष्मी को लगा की भुवन का साथ पाकर अब वह हर क़िला फ़तह कर लेगी! अकेली नहीं अब वह!

#दिल_का_रिश्ता

स्वरचित

प्रीति आनंद

 

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