एहसासों की तुरपाई – कमलेश राणा

ओहो.. आज फिर देर हो गई चाहे जितना जल्दी जल्दी काम करूँ फिर भी घड़ी की सुई से हार ही जाती हूँ। ऑफिस पहुँचते ही सबकी नजरें ऐसे देखती हैं मानो कोई चोरी पकड़ ली हो…

निधि लगभग दौड़ती हुई बस स्टैंड की ओर जा रही थी और साथ ही मन ही मन बड़बड़ा भी रही थी। रवि और देव का टिफिन भी तो समय से देना ही होता है उसे फिर देव को स्कूल के लिए तैयार करते देर हो ही जाती उसे।

बस में काफी भीड़ थी वह पसीना पोंछते हुए खड़ी हो गई उसकी साँसें तेज तेज चल रही थी और जल्दी जल्दी चलने के कारण भरी सर्दी में भी माथे पर पसीने की बूँदें झलक रही थी तभी एक सज्जन उठकर खड़े हो गये और उसे बैठने का इशारा किया निधि को ऐसा लगा जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गई हो। वह लपक कर सीट पर बैठ गई और आँखें मूँद ली उसने बड़ी ही राहत महसूस कर रही थी वह , तभी उन सज्जन ने जिनकी उम्र निधि से लगभग पंद्रह वर्ष अधिक रही होगी पूछा.. कहाँ जायेंगी आप??

फूलबाग.. संक्षिप्त सा उत्तर दिया निधि ने।

अरे!!! मेरा ऑफिस भी वहीं है मुझे भी वहीं जाना है।

दोनों का ऑफिस टाइम एक ही था तो अब अक्सर साथ हो ही जाता उनका। बातों- बातों में पता चला कि मिस्टर तिवारी वहाँ एक मल्टी नेशनल कंपनी में मैनेजर थे। आधे घंटे के रास्ते में रोज होती बातों मुलाकातों में दोनों एक दूसरे के बारे में काफी कुछ जान गये थे।

अब निधि अगर लेट होती तो तिवारी जी उसके लिए सीट रखते कई बार तो उसे दूर से आता हुआ देखकर वे कंडक्टर से कहकर बस रुकवा भी लेते। किसी दिन निधि नहीं आती तो वे चिंतित हो जाते उसके स्वास्थ्य को लेकर और अगले दिन उनका सबसे पहला सवाल यही होता कि वह कल क्यों नहीं आई।




कुछ ऐसा ही निधि भी महसूस करने लगी थी उनके लिए। कई बार वह उनके ख्याल को दिमाग से झटकने की कोशिश करती।

बार- बार खुद से ही सवाल करती.. क्यों मेरा मन उनके लिए एक खालीपन सा महसूस करता है, वह उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं तो दोस्ती का रिश्ता तो बिल्कुल नहीं हो सकता। हमारे बीच.. तो फिर प्यार… नहीं नहीं.. मैं विवाहित हूं और एक बच्चे की माँ भी… यह सोचना ही गुनाह है मेरे लिए।

तो फिर उनका चेहरा बार बार मेरे ख्यालों में क्यों आ जाता है, क्यों उनकी बातें बरबस होठों पर मुस्कान ले आती हैं, क्यों उनसे मिलकर बातें करके दिल को सुकून मिलता है, क्यों मेरी नज़रें उनकी बाट जोहती हैं, क्यों उनसे न मिल पाना दिल में खलिश सी मचा देता है?????

न जाने कितने क्यों थे उसके दिल दिमाग में जिनका कोई जवाब नहीं था और ना ही उनसे पूछने की हिम्मत। दिल कहता… यह प्यार है पर दिमाग इस विचार को सिरे से खारिज़ कर देता। यह सिलसिला सालों चलता रहा एक अनाम रिश्ते के साथ।

आखिर वह समय भी आ गया जब निधि का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया जब उसने यह बात तिवारी जी को बताई तो उनके चेहरे के भाव ऐसे थे मानो कोई उनकी चिर संचित निधि को उनसे छीनकर ले जा रहा हो। अभी निधि को रिलीव होने में वक्त था पर अब तिवारी जी के लहज़े में उसे वह बेतकल्लुफ़ी नज़र नहीं आती थी।




दोनों खामोश थे अपने दिल में प्यार के तूफान को समेटे पर यह खामोशी बहुत कुछ बयां कर रही थी उनके चेहरे की हंसी गायब हो चुकी थी और एक दिन उनके मिलन की कड़ी भी टूट ही गई पर जो बेनाम मगर मजबूत रिश्ता उनके दिलों के बीच जुड़ चुका था वह किसी दूरी का मोहताज नहीं था।

सच्चा प्रेम ढिंढोरा नहीं पीटता अपने होने का ..बस हो जाता है.. कब और कैसे यह प्रेमी भी नहीं जान पाते और खासतौर से निधि और तिवारी जी की उम्र और स्थिति में …जहाँ अपनी भावनाओं से अधिक सामाजिक जिम्मेदारियां और कर्तव्य महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

बस एक ही बात की परवाह होती है कि उनके किसी काम से प्रेमी की रुसवाई न हो। आज निधि दो साल बाद उसी शहर में आई थी बहुत तमन्ना थी उनसे मिलने की पर कुछ सोचकर रह जाती.. उसका हाल अजीब सा हो रहा था…

दिल कहता है चल उनसे मिल

उठते हैं कदम, रुक जाते हैं

कभी दिल हमको समझाता है

कभी हम दिल को समझाते हैं

यह रिश्ता किसी बंधन में न बंधकर भी शायद बहुत प्यारा है।एक दूसरे की परवाह करना और भावनाओं की इज्जत करना ही सबसे बड़ा प्रेम है। प्रेम का मतलब केवल पाना नहीं होता। प्रेम होता है जो संवेदनाओं को जगाए और बस हृदय के अंतःस्थल में कहीं छुप कर बैठ जाए।

# प्रेम

स्वरचित एवं मौलिक

कमलेश राणा

ग्वालियर

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!