अहंकार – पुष्पा पाण्डेय : Moral Stories in Hindi

शहर की रहने वाली कुसुम की शादी गाँव में हुई। कुसुम के पिता को गाँव में ही एक पढ़ा-लिखा युवक उनके आदर्शों पर खरा उतरा और उसे अपना दामाद बना बैठे। तब कहाँ कोई लड़की  से उसकी पसंद  पूछता था। वैसे युवक प्रतिभाशाली था। इंजिनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था।

कुसुम को ससुराल वालों ने सर- आँखों पर बैठाया। बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था। वैसे परिवार में लगभग तीस सदस्य थे, लेकिन  हमेशा गाँव में साथ रहने वाले पन्द्रह- सोलह  लोग ही थे। बाकी लोग रोजी- रोजगार के कारण बाहर रहते थे। होली-दशहरा में गाँव आते थे। विशेष आयोजन में तो घर की आठ बेटियाँ अपने- अपने ससुराल से बच्चों सहित आती थीं। तब बच्चे एक या दो नहीं बल्की चार- पाँच हुआ करते थे। 

             कुसुम की काँलेज की पढ़ाई अभी चल ही रही थी कि पिता ने शादी कर दी। उस समय इसी उम्र में शादी भी हुआ करती थी। कुसुम उस परिवार में ही नहीं उस गाँव में सबसे अधिक पढ़ी लिखी बहू थी। रूप गुण से सम्पन्न तथा एक उच्च नौकरीपेशा पिता की बेटी होने का अहंकार से परिपूर्ण   कुसुम ससुराल वालों से बात करना अपनी तौहिनी समझती थी। पति तो शादी के दो दिन बाद ही अपनी पढ़ाई पूरी करने शहर चला गया।

अब भला कुसुम उन देहाती लोगों के साथ गाँव में ससुराल वालों के साथ कैसे रह सकती थी ? नदन, जेठानी से तो अंग्रेजी मिश्रित भाषा का प्रयोग करती थी और नहीं समझने पर उनका उपहास उड़ाती थी। किसी तरह ग्यारह दिन रहकर अपनी पढ़ाई पूरी करने के बहाने पिता के घर वापस आ  गयी। वैसे कुसुम के पिता भी चाहते थे कि उसकी पढ़ाई पूरी हो। कुसुम अपने पति के अतिरिक्त ससुराल वालों से बेगानों सा व्यवहार करती रही।

उनकी ननदें अपनी भाभी से त्योहारों पर मिलना चाहती थी। उससे मिलने के लिए कुसुम के मायके तक आ जाती थीं, लेकिन कुसुम के पास उन गॅवारों से बात करने की फुर्सत कहाँ थी। शहरी और पढ़ी- लिखी होने का अभिमान कभी रिश्तों की महत्ता को समझने ही नहीं दिया। अपने भांजे- भांजी से तो कुसुम कभी मिली ही नहीं।…

इस कहानी को भी पढ़ें: 

बहुत याद आती है सासू मां की – संध्या त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

वक्त गुजरता गया। कुसुम चार साल अपने पिता के घर ही रही। तब-तक स्नातकोत्तर और बी.एड. की डिग्री हासिल कर चुकी थी। पति भी नौकरी लगने के बाद कुसुम को लेकर अपने कर्मक्षेत्र में पहुँच गया। समय अपनी गति से निरंतर आगे बढ़ रहा था। कुसुम दो बच्चों की माँ बनी, लेकिन कभी भी अपने ससुराल वालों से मिलने की कोशिश नहीं की। हाँ पति समय- समय पर गाँव जाते रहते थे। सास- ससुर तो उसके मायके में ही आकर पोते से मिल लिया करते थे। हाँ एक- दो बार किसी शादी समारोह में जरूर शामिल हुई थी।…

समय गुजरता गया और कुसुम के बच्चों का कर्मक्षेत्र विदेश रहा। सेवा निवृति के बाद पति गाँव के नजदीक ही शहर में घर बनाकर रहने लगे। वक्त ने करवट बदला और अहंकार चकनाचूर हो गया। बच्चे विदेश में ही बस गये। शुरुआती दिनों में बच्चों के पास आना- जाना होता था, लेकिन जब से पति- पत्नी दोनों शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहने लगे , जाना मुश्किल हो गया।

उन्हें अब किसी की मदद चाहिए थी। ऐसे में एक भांजा मदद के लिए आगे आया। लकवा के शिकार पति अब तो विस्तर पर ही पड़े रहते थे। जिस भांजे को कुसुम कभी आने से भरपेट खाना खिला कर एहसान करती थी आज वही उनकी मदद के लिए सामने आया। दुर्भाग्य से उस भांजे को नौकरी वगैरह नहीं मिली थी और वह अपने गाँव की खेती- बारी सम्भालता था।

अन्य रिश्तेदार अतीत के कड़वाहट की याद दिलाने की कोशिश भी करते थे कि तुम उनकी मदद कर रहे हो जो कभी हमलोगों से सीधे मुँह बात भी नहीं करती थी। यहाँ तक कि कुसुम अपने पति को भी उन लोगों से अलग रहने की हिदायत देती रहती थी, क्योंकि वे आर्थिक रूप से कमजोर जो थे। आज सभी रिश्तेदार थोड़ी- थोड़ी दूरी पर ही रहते थे, लेकिन कोई कुसुम को याद भी नहीं करना चाहता था। याद भी कैसे रहती? उसने तो कभी अपने रिश्तों को सहेजा ही नहीं। *अपने अहंकार में रिश्ते के महत्व को भूल चुकी थी।*

आज कुसुम पश्चाताप की आग में अन्दर-ही -अन्दर झुलस रही है। उस भांजे के सामने उसकी नजरें हमेशा झुकी ही रहती है।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

” मैं अपने अहंकार में रिश्ते के महत्व को भूल चुकी थी।”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!