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अब वक्त आ गया है कि मैं बेटा-बहु के बारे में कुछ फैसला लूं……. – सीमा रस्तोगी 

“मम्मी-पापा! आज आप लोग अंधेरे में भी यहीं लॉन में बैठे हैं! विवेक ने दमयंती और सुभाष को बेसमय लॉन में बैठे हुए देखकर कहा

“हां बेटा! तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे, तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है! सुभाष दमयंती का चेहरा देखते हुए बोले

“मुझसे क्या जरूरी बात करनी है? लेकिन फिर भी बताइए?

“बेटा! अब वक्त आ गया है कि मैं तुम लोगों के बारे में कुछ फैसला लूं और इसीलिए तुम लोग अपना कहीं और रहने का इंतजाम कर लो, मैंने घर का ऊपरी हिस्सा जिसमें रहते हो उसको किराए पर उठा दिया है, अगले हफ्ते वो लोग आ जाएंगें! सुभाष ने तल्ख स्वर में कहा

“लेकिन क्यों? और इस तरह अचानक क्यों? और हम लोग कहां जाएंगें? अब तो विवेक के शब्दों की नरमी कहीं गायब हो गई थी

“बेटा! कुछ फैसले परिस्थितियों के आगे मजबूर होकर अचानक लेने पड़ते हैं और तुम ही लोगों ने ये फैसला लेने के लिए हम लोगों को मजबूर भी कर दिया! अब सुभाष के शब्दों में रोष था

“लेकिन! हम क्यों छोड़े इस घर को और फिर घर छोड़कर जाएंगें भी कहां? हमारे बारे में बिल्कुल नहीं सोचा आप लोगों ने! विवेक के शब्दों में अब सम्मान की जगह गुस्सा बढ़ती जा रही थी…

“ये तुम्हारी समस्या है, मुझको कुछ नहीं पता, मुझे जो कहना था सो कह दिया, अगले हफ्ते किराएदार आ जाएंगें, तुम लोग जल्द से जल्द अपना इंतजाम कर लो!

“लेकिन आप हम लोगों के साथ ऐसा बिल्कुल भी नहीं कर सकते! आखिर मैं आपका बेटा हूं! कुछ तो सोचिए हम लोगों के बारे में! विवेक अब उन लोगों को भावुक करने पर तुल गया



“ये तो तुमको और मीनाक्षी को वक्त से पहले ही सोचना चाहिएं था.. और अब तुमको इस वक्त याद आया कि तुम मेरे बेटे हो, बेटे होने का कौन सा फर्ज निभाया है तुमने? तुम खुद समझदार हो, क्योंकि मैं सारी बातें दोहराकर अपना और दमयंती का अपमान खुद नहीं  करना चाहता! बहुत हुआ, चलो उठो दमयंती अंदर! सुभाष ने दमयंती का हाथ पकड़कर कहा

 

विवेक वहीं पर अपना सिर पकड़कर बैठ गया… “एक तो इतनी अच्छी कालोनी में इतना अच्छा घर मिलने से रहा और मिल भी गया तो महंगा बहुत मिलेगा…

चलिए मिलवाते हैं आपको दमयंती और सुभाष से….कि उन्होंने ये कठोर फैसला क्यों लिया?

सुभाष एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्य करते थे, नौकरी में पेंशन की कोई सुविधा नहीं थी और सुभाष ने अपनी सारी जमा-पूंजी विवेक की पढ़ाई-लिखाई और परवरिश पर लगा दी… बुढ़ापे की कोई चिंता ही नहीं थी… क्योंकि बेटा विवेक बैंक की तैयारी कर रहा था… एक बार बैंक में नौकरी लग गई.. तब तो बल्ले ही बल्ले… लेकिन दमयंती हमेशा समझाती कि खर्चा करिए, लेकिन बुढ़ापे के बारे में भी सोचिए…

“अरे हमारा बुढ़ापा तो सुधरा-सुधराया है, जब अपना पूत जब कमासुत हो जाएगा, तब हमको बुढ़ापे की चिंता करने की कौन जरूरत! आखिर अपने जीवन की सारी पूंजी उस पर लुटा दी है, तो उसे तो हमारा ख्याल रखना ही पड़ेगा!सुभाष विवेक के ऊपर गर्व करते हुए बोलते

“भगवान करे तुम्हारे अरमान अवश्य पूरे हों! दमयंती मन ही मन कुछ सोचते हुए बोलती

इधर विवेक की नौकरी लगी और उधर उसके रिश्ते आने लगे, लेकिन विवेक ने अपनी मनपसंद लड़की से शादी करने की इच्छा जाहिर की… समझदार अभिभावक की भूमिका निभाते हुए उन लोगों ने विवेक को शादी की रजामंदी दे दी…

सुभाष का रिटायरमेंट भी करीब आ रहा था… शुरू-शुरू में तो मीनाक्षी बहुत अच्छी तरह पेश आती… लेकिन इधर सुभाष का रिटायरमेंट हुआ और उधर मीनाक्षी के साथ-साथ विवेक की भी नजरें बदलने लगीं… अब तो उन लोगों को सुभाष और दमयंती फूटी आंख ना सुहाते…. हालांकि विवेक सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहता, लेकिन हाव-भाव से तो पता ही चल जाता है…

सुभाष और दमयंती की थालियों में गिनकर दो रोटियां आतीं, वो भी बिना घी लगी… पानी ऐसी पतली दाल, सब्जी भी जैसे बिना मसाले और तेल के उबाल दी गई हो, शुरू से खाने-पीने के बेहद शौकीन सुभाष जब इस प्रकार का खाना देखते और उसको देखते ही उनकी भूख मिट जाती, क्योंकि कभी इस तरह का खाना खाया ही नहीं था, लेकिन कभी-कभी जबरदस्ती खा भी लेते तो दो रोटी से भूख नहीं मिटती…

अगर सुभाष कुछ बनाने के लिए कहते भी तो मीनाक्षी सीधे यही कटाक्ष मारते हुए कहती “कि तन भयो बूढ़ो तृष्णा भई जवान, कुछ तो बुढ़ापे का ख्याल करिए!



अगर किसी दिन खाना अच्छा लगता, तो तीसरी रोटी ही मांगते, मीनाक्षी की आवाज सुनाई पड़ती… “यहां तो जवानी में दो रोटी हजम नहीं होतीं, ये तो बुढ़ापे में भी इतना खाना खा लेतें हैं, कम खाना खाया करिए आप लोग… बुढ़ापे में खाना-पीना नुकसान बहुत जल्दी करता है, कहीं तबियत खराब हो गई.. तो हम लोगों का दवाइयों पर भी फिजूल खर्च करना पड़ जाएगा.. और सेवा करनी पड़ेगी सो अलग! सुभाष खिसियाकर थाली के पैर छूकर चुपचाप उठ जाते और दमयंती सुभाष को इस तरह मन मारते देखकर आंसू पोंछने लगती… क्योंकि उसे सुभाष का इस तरह थाली छोड़ना अंदर तक परेशान कर देता…

दमयंती अगर अपने जरूरी खर्च के लिए भी कुछ कहती तो मीनाक्षी सीधे यही जवाब देती “मम्मी अब आ बूढ़ा गई हो, ज्यादा शौकीनी अच्छी बात नहीं!

इसी तरह धीरे धीरे वक्त गुजर रहा था..।

आज सुबह की ही बात है, दमयंती सत्संग से लौटते हुए अपने चार-पांच साथियों को बुला लाई और मीनाक्षी से चाय बनाने के लिए कह दिया और तभी मीनाक्षी चिल्लाते हुए बोली “यहां कोई खैरात नहीं बंट रही, जिसको देखो उसको बुला लाती हो, मेरे पति दिनभर हड्डे लगाकर कमाते हैं, तब इस घर का खर्चा चलता है, आप लोगों का वश चले तो सब-कुछ लुटा ही दें, मेरे पास ना फालतू पैसा है और ना ही समय, जो मैं इन फालतू के लोगों की खातिरदारी में जुट जाऊं…!

उसकी आवाज बाहर ड्राइंगरूम तक आ रही थी, साथ में आईं सभी लोग चुपचाप उठकर वापस चली गईं, लेकिन सुभाष के अंदर तक कुछ कसक सा गया..



“बस दमयंती बहुत हुआ, मेरा आत्मसम्मान अभी जिंदा है, मैं विवेक का ऊपरी पोर्शन किराए पर उठा दूंगां और मैं अभी इतना बूढ़ा नहीं हुआ कि कमा ना सकूं, बाहर ड्राइंगरूम में टाफी-बिस्कुट की दुकान खोल लूंगां, हमारे दो जनों भर का तो बहुत हो जाएगा! सुभाष ने कठोर निर्णय लेते हुए कहा

“लेकिन विवेक और मीनाक्षी कहां जाएंगें? दमयंती चिंतित स्वर में बोली

“जब हम लोगों की चिंता उनको नहीं तो हम उनकी चिंता भी नहीं करेंगें! और आज सुभाष ने अपना फैसला विवेक को सुना दिया था और अब विवेक और मीनाक्षी के पास सिवाय पछताने के कुछ नहीं बचा था…

 

ये कहानी स्वरचित है

मौलिक है

क्या सुभाष का निर्णय सही था, लाइक और कमेंट्स के द्वारा अवश्य अवगत करवाइएगा और प्लीज मुझको फॉलो और मेरी कहानी को शेयर जरूर कीजिएगा, क्योंकि आपका एक-एक फॉलो और शेयर मेरे लिए बहुत ज्यादा मायने रखता है…

धन्यवाद आपका🙏😀

आपकी सखी

सीमा रस्तोगी 

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