आत्मविभोर – गीतांजलि गुप्ता

दीपेश का फ़ोन बार बार बज रहा था और वो आफिस के काम मे व्यस्त था। फ़ोन की तरफ देखे बिना कॉल काट रहा था।

तभी मेज पर रखा फ़ोन बज उठा। उसने उठा लिया। दूसरी तरफ से लीना ने चिल्लाना शुरू कर दिया। “कितने फ़ोन किये उठाते क्यों नहीं”

“अरे काम कर रहा था ज़रूरी था फ़ोन की तरफ देखा नहीं वैसे ही काटता रहा” सफ़ाई देते हुए दीपेश ने जबाब दिया। “बोलो क्या हुआ सब ठीक है, ना तान्या ठीक है” दीपेश ने कुछ अनहोनी न हो गई इस कि तसल्ली के लियें जल्दी जल्दी पूछा।

“हाँ और सब तो ठीक है पर आपकी माँ” लीना बोली।

‘क्या हुआ माँ को” दीपेश कुछ हड़बडा गया।

“कुछ नहीं हुआ अचानक उनकी सखी नीलम का फ़ोन आया कि वो कॉलोनी के ग्रुप के साथ ऋषिकेश जा रही हैं और बीस दिन बाद आयेंगीं । आज रात की ही उनकी रवानगी है। कैसे कर सकती हैं वो ऐसा, तान्या को कौन संभालेगा। मेरा ऑफिस में बहुत ज़रूरी प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। “लीन तिलमिलाई हुई थी।

“अभी बात करता हूँ उनसे तुम शांति रखो” दीपेश ने फ़ोन रख दिया।

वो आराम से अपना काम निपटाने लगा और लीना की बात को अनसुना कर दिया। शाम को घर पहुँचा तो लीना का पारा चढ़ा हुआ था।

“तुमने क्या माँ से बात नहीं की उन्हें जाने से नहीं रोका” लीना ने गुस्से से पूछा, “वो समान बांध कर बैठी हैं।”

दीपेश ने शांति से जबाव दिया, “कोई बात नहीं कुछ दिनों के लियें मम्मी जी आ जायेंगीं इतना क्यों परेशान हो रही हो। जब से तान्या पैदा हुई है उन्होनें भी तो उसके साथ कोई समय नहीं बिताया। अब मौका है बच्चा व नानी के घुलमिल जाने का।”

इतना सुनते ही पैर पटकती लीना अपने कमरे में चली गई।

दीपेश माँ के पास जा कर बैठ गया। स्नेह से माँ ने उसके हाथ थाम लियें माँ की आँखों से आँसू दीपेश ने हाथों पर महसूस किये माँ के मन की सारी कड़वाहट आँसू बन टपक पड़ी थी। दीपेश माँ को बस तक छोड़ने चल पड़ा।

“माँ आपका जब मन करे आना यहाँ की चिन्ता मन करो।”

दीपेश के इन शब्दों से माँ आत्मविभोर हो गई।

गीतांजलि गुप्ता

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