आस – नीना महाजन नीर

  इस नश्वर संसार से विदा ले ली थी मैंने…

               अस्पताल से मुझे घर ले आया गया , सब रिश्तेदार आ रहे थे धीरे-धीरे कमरे में बहनें , भाई , देवर , भाभी , चाची , मौसी , ताई सब एकत्रित हो गए थे .

         घर में भीड़ बढ़ती जा रही थी

                       सब प्रशांत को सांत्वना दे रहे थे और मेरे सफ़र की तैयारियों में लगे थे . 

           मेरा सुंदर श्रृंगार कर दिया गया था , लाल जोड़े में सज़ी सुहागन की दुनिया से विदाई की घड़ी आ गई थी 

                     बहुत बेचैन थी मैं… 

बार-बार नज़र दरवाज़े तक जाती और मायूस लौट आती….

    हां… तुम्हारा ही इंतज़ार था मुझे…मेरे बच्चे.. 



          आज तो मुझे अपनी भूख प्यास की भी चिंता नहीं थी .

              आज कुछ था तो केवल इंतजार… 

          अपने उस बेटे का इंतजार… जिसके इंतजार में मैं पिछले 11 वर्ष से थी .

           कुछ और नहीं ,… बस जाने से पहले एक बार तुमसे गले लग कर रोना चाहती थी मेरे अंकुर…

      वैसे ही जैसे तुम बचपन में मेरे कुछ क्षण भी ना दिखने पर मुझसे गले लिपट कर सुबकने लगते थे .

           मेरे बच्चे.. जब तू छोटा था ना ”’ 

     तुझ में मेरे और मेरे तुझ में प्राण बसते थे फिर पता नहीं  धीरे-धीरे तुमने कैसे बात-बात पर गुस्सा करना सीख लिया और हमसे बात भी कम करने लगा

         कुछ अलग-अलग सा हो गया थे तुम..

             फिर पता नहीं , तुमने किस पुस्तक में पढ़ लिया कि बड़े होकर काबिल बन जाने पर माता-पिता का साथ छोड़ देते हैं …

                ना जाने कौन से सुख की तलाश में तू खुद को खो रहा था और हमसे दूर हो रहा था



             तुम हमें छोड़कर, इस देश को छोड़कर चले गए..

 हम तुम्हें नहीं रोक पाए 

                      क्योंकि अब तुम सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचने लगे थे , तुम स्वार्थी हो गए थे

              प्रशांत यह बात मुझे कई बार समझाने की कोशिश करते पर मैं सदैव यही कहती देखना एक दिन हमारा प्यार हमारे बच्चे को वापिस ले आएगा

                 लेकिन मैं यह भूल गई कि हमारा बच्चा अब हमारा नहीं रहा वह सिर्फ अपने लिए ज़ीने लगा था 

              उसने वहीं अपनी पसंद की लड़की से शादी भी कर ली थी अब वो हमारा रिश्ता ख़त्म कर नया रिश्ता निभा रहा था 

                ज़िंदगी शून्य हो चली थी क्योंकि अब तुम्हारे आने की कोई उम्मीद नहीं बची थी 

                     तेरे बचपन की कहानियां ही हम एक दूसरे को सुना कर हंस लेते थे फिर हंसते-हंसते एकाएक गला रूंध जाता था जब बातों में कभी तुम्हारे वापिस ना आने का जिक्र होता था 

                फिर मैं सोचती ..नहीं ,,,प्रशांत के सामने मुझे अपने भावों पर नियंत्रण रखना आना चाहिए प्रशांत के सामने दुख प्रदर्शित ना हो इस बात का मुझे ध्यान रखना चाहिए.. पर…भावों पर बस थोड़े ही चलता है , बादल घुमड़ते ही जैसे वर्षा हो जाती हैं उसी तरह भाव आते ही आंखें छलक जाती 

            सूना घर मेरी रूलाई और हिचकियों से गूंजने लगता 

                     औलाद का ना होना एक दुख है और नालायक निकल जाना दुखों का अंत नहीं है

                   क्यों यह अंतहीन सिलसिला हमारे साथ ही होना था

              मैं समझ चुकी थी कि अब तुम वापिस नहीं आओगे…

         पर , मैं मां हूं ना …

                जब तक ज़िंदगी रही रोज़ इसी उम्मीद में ज़ी रही थी तुम आज़ नहीं तो कल ज़रूर आओगे…

 अपनी मां से मिलने 

                  ज़िंदगी जीने के लिए कुछ अधूरी उम्मीदें जरूरी होती है

                    खैर ..हम तो अपनी ज़िंदगी ज़ी ही रहे थे लेकिन हम तब बिल्कुल ही टूट गए जब मेरी बीमारी की घड़ी में तुम्हें हम अपने पास चाहते थे लेकिन तुम्हारे पास समय ही कहां था



                     अस्पताल में भी हर पल मेरी आंखें दरवाज़े को तकती शायद किसी पल तुम मुझे मिलने आ जाओ 

                आश्चर्य तो इस बात का हो रहा था कि बचपन में मुझे देखते ही मुस्कुराने वाला लाड़-दुलार करने वाला.. आखिर ..है कहां..

                    तुम्हें जन्म देने से पहले मैंने यह सोचा था कि तुम मेरा साथ मरते दम तक निभाओगे , मुझे सदैव स्नेह दोगे , लेकिन नहीं… मेरी यह उम्मीद दम तोड़ चुकी थी 

                      तुम कैसे भी हो मेरे बच्चे.. मैं तो तुम्हें तुम्हारी हर आदत के साथ स्वीकार कर मरते दम तक तुम्हें प्यार करती रहूंगी

                     अब एक महीना अस्पताल में मैं जीवन मृत्यु की लड़ाई लड़ते-लड़ते हार मान चुकी थी 

                    मायूसी ने मेरी जीने की इच्छा ही खत्म कर दी है , हां…मेरी बीमारी से ज़्यादा शायद तुम्हारी बेरुखी मुझे अंदर तक खोखला कर रही थी , पर ….

           एक आस थी कि तुम मुझे मिलने आओगे पर अब तुम्हारा इंतजार करते-करते इस के साथ यह सांसे भी मेरा साथ छोड़ रही हैं 

                        प्रशांत ने फोन पर तुम्हें कई बार कहा भी …बेटा बस एक बार आ जाओ , मां की तबीयत भी ठीक नहीं रहती , वह तुमसे मिलने को तरस रही है 

             पर जाने क्या जादू था उस विदेशी मिट्टी में जिसने तुम्हें वही बांध लिया था 

                 आज  प्रशांत सदमे में थे उनके जीवन में अंतहीन सन्नाटा छा गया था उनकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे 

                     शायद अकेले जीने का सोच कर ही वो अशांत व व्यथित थे और आगे जीने वाले एकाकी जीवन जीने के भय से भयभीत थे 

                     प्रशांत के सब्र का बांध टूट गया उनका चीत्कार रुदन आकाशभेदी था 

                   सभी कर्मकांड पूर्ण कर प्रशांत मेरी चिता को अग्नि देने के लिए पंडित जी के साथ खड़े थे .

                 पर.. मैं बंद आंखों से अभी भी इसी उम्मीद में थी कि मेरा लाडला बेटा मुझसे आकर लिपट जाएगा और कहेगा…. मां…. तुम क्यों चली गई…. माना… मुझे आने में देर हो गई पर तुम मेरा कुछ और इंतजार तो करती… 

तुम तो मुझसे ढेर सारी बातें करना चाहती थी… ना.. मां… 

                  अब तक नहीं आ पाए मेरे बच्चे,,,, कोई बात नहीं लेकिन अब मेरे न रहने पर अपने पापा को जरूर संभाल लेना…वह अकेले ज़ी नहीं पाएंगे 



                 बस… और कुछ नहीं… कहना मुझे…  मेरे बच्चे

                   हर ओर बहुत कोहरा छाया था.. जिसमें मेरा वो अपना खो चुका था

                    अच्छा है… जाने से पहले ही मोहभंग हो गया था…

          अब आत्मा अशांत ना होगी….

#उम्मीद 

नीना महाजन नीर

गाजियाबाद

 

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