अर्चना –  मुकुन्द लाल

 ‘वीमेंस स्वावलंबन प्रशिक्षण संस्थान’ को सजाने-संवारने की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही थी। उसके गेट पर खूबसूरत और आकर्षक तोरण द्वार का निर्माण किया गया था। संस्थान के परिसर के अंदर गेट से भवन तक जाने वाले पथों के किनारे फूलों के गमले कलात्मक ढंग से सजाये गए थे।

  कई दिनों से समारोह हेतु सजावट और साफ-सफाई का का कार्यकलाप चल रहा था। तैयारियाँ अंतिम चरण में पहुंँच गई थी।

  संस्थान की संस्थापिका अर्चना मैम घूम-घूमकर व्यवस्था का मुआयना कर रही थी। जहाँ-तहाँ रह गई कमियों को अपने अधिनस्थ कर्मचारियों और संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली छात्राओं को आवश्यक निर्देश दे रही थी।

  मंत्रीजी घंटे-भर बाद ही आने वाले थे। अर्चना मैम तैयारियों से संतुष्ट और खुश थी।

  अवसर था इस संस्थान की संस्थापिका सह प्राचार्या अर्चना मैम को सरकार की तरफ से सम्मानित करने का। 

  वास्तव में इस संस्थान ने कुछ ही वर्षों में बहुत शोहरत हासिल कर ली थी। यहांँ से प्रशिक्षित होकर जाने वाली लड़कियाँ जहाँ भी नियुक्त थी अपने क्षेत्र में अपना नाम रौशन कर रही थी। यहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त महिलाएँ अपनी आजीविका चलाने में सक्षम होने लगी थी। प्रशिक्षणार्थियों को अपने ट्रेड में दक्षता, निपुणता और कुशलता प्रदान करने वाले इस संस्थान की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी।




  खुली आंँखों से देखे जाने वाले अर्चना का स्वप्न साकार हो गया था, किन्तु यह इतना आसान नहीं था। प्रारम्भ से इस मुकाम तक पहुँचने का रास्ता बहुत कठिन और त्रासदीपूर्ण था। इसके लिए उसे दशकों तक त्याग-तपस्या और कर्मठता के साथ, सामाजिक रिश्तों की परवाह किये बिना, घर-गृहस्थी नहीं बसाने का संकल्प लेकर प्रयासरत रहना पड़ा था।

  विश्वासघात का जख्म अपने सीने में छिपाये कहाँ-कहाँ नहीं भटकी थी। तिलांजलि का दंश और अंतर्मन की पीड़ा से मर्माहत होकर उसकी आँखें सावन-भादो की तरह बरसती रहती थी।

  उस बड़े शहर में प्रसिद्ध व्यवसायी पुरुषोत्तम बाबू की इकलौती पुत्री अर्चना सुन्दर और गुणवान थी। अपने क्लास में वह हमेशा अव्वल आती थी। उसके स्नातक करने के बाद उसकी शादी-विवाह की बातें चलने लगी तो इस संबंध में उनका विचार था कि व्यवसाय में तो लोगों को ‘हाय पैसा-हाय पैसा’ हमेशा लगा रहता है, धन-उपार्जन के सिवाय उनका ध्यान दूसरी ओर अपेक्षाकृत कम ही रहता है। यही कारण था कि इस सिद्धांत के तहत कई व्यवसायी के होनहार युवकों से उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता जोड़ने से इनकार कर दिया था। अंत में पुरुषोत्तम बाबू ने एक अफसर से अर्चना की शादी उमंग-उत्साह के साथ कर दिया इस आशा और विश्वास के साथ कि उसकी बेटी सुखी होगी, उसका दाम्पत्य-जीवन खुशहाल होगा। उसका भविष्य उज्ज्वल होगा।

  अर्चना का पति सनातन किसी विभाग में अफसर था। लम्बा कद, सुगठित शरीर, चौड़ी छाती, बलिष्ठ भुजाएंँ, चमकदार चेहरा, बारीक करीने से कटी हुई मूंँछें, कंट्रास्टिंग कलर में पैंट-शर्ट व कमर में पोशाक से मैचिंग  करता हुआ बेल्ट को देखकर उसकी पत्नी उस पर जान क्यों नहीं छिड़केगी, क्यों नहीं प्रेमातुर होकर उसके आलिंगनपाश में बंध जाएगी, अपने को भाग्यशाली समझेगी।




  इसी तरह की स्थिति अर्चना की थी। अपने जीवन साथी से इतना मोह हो गया था कि वह पल-भर के लिए भी अपने पति से अलग नहीं होना चाहती थी। सनातन भी अपनी पत्नी के प्रति प्यार प्रदर्शित करने में कोई कमी नहीं करता था। दोनों एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे।

  पहली मुलाकात में ही अर्चना के उभरे ललाट पर गिरे बालों की लटें, रसीले सुर्ख ओठ, सुरमई हिरणी सदृश आंँखें, गोरे गुलाबी गालों पर काला तिल, चेहरे पर खिली हुई मुस्कान की कशिश, व्यवहार में आत्मीयता की ऐसी महक कि वह अनायास ही चुंबक की तरह उसकी ओर खिंचा चला गया था और उसका सानिध्य पाकर मदहोश हो गया था।

  गुलाबी प्यार का रंग दोनों पर ऐसा चढ़ा कि साल-दो साल कैसे निकल गए कुछ पता ही नहीं चला।

  बाद में सनातन के अंतरंग संबंधों की गर्माहट कम होने लगी। अपने दफ्तर से भी समय पर नहीं लौटने लगा। जब अर्चना पूछती तो वह कहता कि वह अपने दफ्तर का बाॅस है। उस दफ्तर की सारी जिम्मेदारी उसके सिर पर है। अनेक तरह की रिपोर्टों को समय-समय पर ऊपर भेजना पड़ता है। उसमें कभी-कभी देर हो जाती है। आखिर हमलोग रोटी भी तो इसी की खाते हैं। उत्तरदायित्व तो निभाना ही पङेगा न, सरकार वेतन तो काम का ही न देती है। इस तरह का जवाब अक्सर वह देता। उसका उत्तर सुनकर वह खामोश हो जाया करती थी।

  वह टूर पर जाने की बातें कभी करती तो वह टाल दिया करता था। किसी सामग्री की खरीदारी करने के लिए मार्केट जाने के लिए कहती तो उसकी बातों को एक सिरे से खारिज कर देता। उसके घर में उसकी माँ के सिवा कोई नहीं था। उसकी बहन की शादी हो गई थी वह ससुराल में रहती थी। मांँ उसकी हर बात में हांँ में हांँ मिलाती थी ऐसे मौकों पर। उसके ससुर तीन वर्ष पहले ही परलोक सिधार गये थे।




  दफ्तर फोन करती तो ‘हैलो’ के साथ ही फोन कट जाता था। एक बार  उसने किसी मुद्दे पर बात-चीत करने के लिए फोन किया तो कुछ पल तक रिंग होने के बाद किसी लड़की ने फोन उठाया, हैलो, कहने पर उसने कहा कि वह अपने चैम्बर में नहीं हैं, दफ्तर के अंदर ही किसी से मिलने गये हैं, इसके साथ ही फोन कट गया।

  अर्चना को ऐसा महसूस होने लगा था कि उसके प्यार के बंधन ढीले पड़ते जा रहे हैं। 

  ड्यूटी से घर लौटने के बाद वह कुछ पूछती तो वह उसका जवाब कड़े शब्दों में देता। कभी-कभी तो ऐसे मौकों पर मौन धारण कर लेता मानो वह उसकी बातें सुन ही नहीं रहा हो या बहाने बनाकर टाल देता।

  उस दिन दफ्तर से लौटने के बाद अर्चना ने बहुत ही मधुर स्वर में कहा, “आप बहुत थके-थके से लग रहे हैं।… हाथ-मुंँह धोकर बैठिए सोफे पर आराम से, मैं तुरंत काॅफी और नास्ता लेकर आ रही हूँ…”

  “नहीं!… न तो मुझे काॅफी की जरूरत है और न नास्ता की, मुझे अभी एकांत में छोड़ दो, किसी मुद्दे पर मुझे सोचना है” उदासीन होकर तल्खी के साथ  उसने कहा।

  वैसे भी कुछ दिनों से उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया था, छोटी-छोटी बातों पर तुनक जाता था।

  उसके बाद वह बेडरुम में जाने लगा तो सर्ट की पीठ पर लिपस्टिक का हल्का दाग उसकी नजरों से छिपा नहीं रहा। तैश में अर्चना ने कहा,

” आप किसी के हाथ की गर्म काॅफी और नास्ता तो करके आये हैं तो मेरे हाथ की काॅफी में वह स्वाद कहांँ से मिलेगा?”

  “क्या बकती हो?”

  “मैं ठीक कह रही हूँ, सच्चाई से मुझे भ्रमित करने की कोशिश नहीं करें और न भटकाने का प्रयास करें।”

  “किस सच्चाई की बातें कर रही हो। “

 ” सच्चाई कटु होती है, इसलिए  आप मेरी बातों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं और न मेरी बात-चीत आपको अच्छी लग रही है। “

  क्षण-भर चुप रहकर उसने आगे फिर कहा,




” सच्चाई क्या है?.. यह आपके सर्ट पर के दाग चीख-चीखकर कह रहे हैं।… इधर आइये, सर्ट खोलकर देखिए उसकी पीठ पर। “

  उसने सर्ट खोलकर देखा तो सचमुच दाग देखकर शर्मिंदा हो गया। उसने धीमी आवाज में कहा,” ड्यूटी पर जाते वक्त रास्ते में बाइक खराब हो गई थी, उसे मिस्त्री के पास छोड़कर सीटी बस पकड़ लिया। बस में भीड़ थी। सीट तो खाली थी नहीं, खड़े-खड़े जा रहा था, हो सकता है बस के हिचकोलों में किसी महिला का चेहरा उसकी पीठ से स्पर्श कर गया हो और सर्ट में लिपस्टिक का दाग लग गया हो। इस तरह की बातें होती है बसों में। “

 ” वाह! वाह!… आपकी कल्पना भी बेमिशल है।… वास्तव में आपको अफसर नहीं कहानीकार होना चाहिए था। “

 ” तुम मुझ पर शक नहीं करो अर्चना!… आज भी मैं वही सनातन हूँ जो शादी के वक्त था। मेरे विचार, आचरण और मेरे प्यार पर शक मत करो। “

  शक का वायरस उसके दाम्पत्य जीवन को खोखला करने लगा था। दोनों में बात- बात पर झगड़े होने लगे। लेकिन कहीं न कहीं तो दाल में काला अवश्य था। गाहे-बगाहे किसी लड़की का फोन आता तो वह मोबाइल लेकर घर से बाहर निकल जाता। छिप-छिपकर मोबाइल पर बातें करता था। पूछने पर वह कोई जवाब नहीं देता था। ऐसी स्थिति में उसको अपमान सा महसूस होता था। उसके ऐयाशी का दौर शुरू हो गया था। सौहार्द्र, मनुहार, अनुराग और समर्पण की जगह विकर्षण, नफरत, विश्वासघात और धोखा ने ले लिया था। अपने पति के होते हुए भी वह अकेलापन महसूस करने लगी।

  एक दिन दफ्तर का चपरासी घर पर कोई अर्जेंट खबर बताने के लिए आया था, किन्तु सनातन घर पर नहीं था।




  उसने अर्चना को साहब से नाम नहीं बताने की शर्त पर दबी जुबान में उसने बताया कि एक लड़की ने कुछ माह पहले दफ्तर में ज्वायन किया है, उसी के साथ इनका कोई चक्कर है।

  जब मजाकिया लहजे में अर्चना ने इस संबंध में चर्चा की तो उसने आंँखें लाल पीला करते हुए कहा कि कौन है वह जो झूठ-मूठ की बातों से उसका दिमाग खराब करता रहता है। उसका(सनातन) दिमाग नहीं खराब करे ऊल-जलूल बातें करके।

  तब अर्चना ने गंभीरता के साथ कहा, “ये ऊल-जलूल बातें नहीं है इसमें सच्चाई है…”

  “हांँ है!… तो क्या करोगी तुम?… यह मेरा जीवन है, मैं कैसे जीऊंँगा, यह मुझ पर निर्भर करता है, किसके साथ जीने से मुझे खुशी मिलेगी, आनन्द का झरना हासिल होगा, किसके साथ जीने से अवसाद के दरिया में डुबकी लगाना पङेगा, यह मैं जानता हूँ और मेरा यह अधिकार है… और तुम्हारा भी है, तुम भी जैसे चाहे जीवन जी सकती हो। मेरी तरफ से कोई बाधा नहीं है। “

  उसकी बातों से वह संज्ञाशून्य हो गई। उसे ऐसा महसूस हुआ मानो किसी ने सब्जबाग दिखाकर अपने स्वार्थ के लिए धोखे से उसके सीने में खंजर घुसेङ दिया हो।

  अब कहने-सुनने के लिए कुछ नहीं बचा था।

  आपसी मनमुटाव, नफरत और दफ्तर वाली लड़की अंत में तलाक का कारण बनी क्योंकि दफ्तर वाली लड़की ने सनातन को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि पहली पत्नी को तलाक देने के बाद ही वह उसके साथ रिश्ता जोड़ सकता है, अन्यथा वह उसके जीवन से दूर हो जाए।

  उसकी शर्तों को स्वीकार करते हुए उसने अर्चना को तलाक दे दिया। 

  अर्चना अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर अपने पापा के घर पहुंँच गई। 




  अपनी बेटी के बारे में सारी जानकारी मिलते ही, उनके दिल पर गहरा धक्का लगा, फिर भी सदमा का गरल पीने के बाद भी उसके पापा ने उसे ढांढ़स बंधाया। सांत्वना के शीतल शब्दों से उसके अंतर्मन की पीड़ा को कम करने की कोशिश की।

  उन्होंने अपनी बेटी को समझाते हुए कहा कि पहाड़ ऐसी जिन्दगी को कैसे काटोगी। वह प्रयास करके दूसरी शादी करवा देगा किन्तु अर्चना ने शादी करने से साफ मना कर दिया था। उसने कहा था कि क्या गारंटी है कि उसका होने वाला दूसरा पति दूध का धोया हुआ हो। सभी मर्दों की मानसिकता औरत के मसले पर थोड़ा कम या ज्यादा लगभग एक जैसी होती है। 

  उसे शादी नाम से ही नफरत हो गई। उसने अपने पापा से  सख्ती के साथ कह दिया कि शादी करने का प्रपोजल भविष्य में कभी भी उसके सामने नहीं रखें ।

  जब पुरुष शिक्षित होकर स्वावलंबी बन सकता है तो शिक्षित या प्रशिक्षित होकर महिला क्यों नहीं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है, जबकि हर काम करने की क्षमता उसमें भी मौजूद है।

  इसी सिद्धांत के तहत उसने एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी पकड़ ली। किन्तु कुछ महीनों के बाद ही वहाँ के स्टाफ उसे गलत निगाहों से देखने लगे। उनमें से एक ने  उसको अप्रत्यक्ष रूप से कई तरह के प्रलोभन देना शुरू कर दिया अपने जाल में फांँसने के लिए, किन्तु वह तो अलग मिट्टी की बनी हुई वनिता थी। उसने उसको खबरदार करते हुए कहा कि आइंदा वह कभी भी दफ्तर के कार्यों से संबंधित गतिविधियों को छोड़कर दूसरे दायरे के कार्य-कलाप और बातों को उसके सामने  भूलकर भी प्रश्रय न दे।

  लेकिन जहाँ हर शाख पर उल्लू बैठा हो वाली कहावत लागू हो तो वहांँ क्या किया जा सकता है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाने वाली भयंकर त्रासदी उपस्थिति हो जाए तो कोई भी महिला अपनी अस्मिता व इज्जत की रक्षा के लिए सुरक्षित दायरे में ही रहना पसंद करेगी। 

  कुछ इसी तरह की स्थिति अर्चना के साथ भी दुर्भाग्य से उपस्थित हो गई। 




  जब उस कंपनी के बाॅस ने उसे अपने चैम्बर में बुलाकर कहा, “अर्चना जी!… आज शाम के वक्त आप फुर्सत में हैं। आइये न थोड़ा घूमते-टहलते हैं, किसी होटल के लजीज व्यंजनों का इकट्ठे आनन्द लेंगे, बहुत दिनों के बाद सिनेमाघर में बहुत अच्छी फिल्म भी लगी है।”

  यह सुनते ही उसकी देह में आग लग गई। वह बाॅस के ऐसे प्रपोजल का अर्थ बखूबी समझती थी। उसकी नीयत खराब हो गई थी। वह समझ गई थी कि उसके मन में खोट आ गया है। उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंँच गया। उसने बदनामी के डर से अपने गुस्से पर काबू पाते हुए , झूठ का सहारा लेकर कहा कि उसके पिताजी की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए उसका साथ देने में असमर्थ है। फिर वह तेजी से कंपनी के दफ्तर से बाहर निकल गई। 

  दूसरे ही दिन वह स्पीड पोस्ट से अपना इस्तीफा भेज दिया। 

  उसने द्दढ़ निश्चय कर लिया कि वह संघर्ष करेगी, कठिन परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करेगी लेकिन अपनी इज्जत की बलि कभी नहीं चढ़ने देगी। 

  उसके बाद उसने अपने जीवन के संबंध में चिंतन-मनन किया। उसने महसूस किया कि आर्थिक रूप से महिलाएंँ सुदृढ़ हो जाएंँ, उनको अपनी आमदनी का जरिया हो जाए तो मर्दों के अत्याचारों और प्रताड़नाओं से कहीं हद तक निजात मिल सकती है बशर्ते कि उनका अपना आचरण ठीक-ठाक हो। 

  उसके बाद ही उसने  ‘वीमेंस स्वावलंबन प्रशिक्षण संस्थान’ की आधारशिला रखी उसके जाॅब ओरिएंटेड(रोजगारोन्मुखी) प्रशिक्षण के लिए कई प्रकार के टूल्स और मशीनों की आवश्यकता थी। उसके लिए उसने एक फोरमेन से भी संपर्क किया। उससे जानकारियाँ और मार्गदर्शन प्राप्त किया। संस्थान की शुरुआत करने के लिए पैसों की जरूरत थी। उसके पिताजी काफी उम्रदराज हो गए थे। वे स्वयं मुश्किल से जीवन-यापन कर रहे थे। उनसे पैसे की उम्मीद करना उसे उचित नहीं लगा। उसने अपने सारे गहनो को बेच दिया, उससे उसको लाखों रुपये मिले। प्रारंभ में उन पैसों से कुछ टूल्स व मशीनों को खरीदा गया, जिससे प्रशिक्षण का शुभारंभ कर दिया गया। 




  छोटा सा रोपा गया पौधा दशकों बाद बरगद के वृक्ष की तरह विशाल बन गया। इसके साथ ही वह भी प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंँच गई थी। 

  उसके संघर्ष ने उसे सफलता के शीर्ष पर पहुंँचा दिया था। 

                          मंत्रीजी अपने निश्चित समय पर आये। उन्होंने अर्चना  मैम और सफल संस्थान की भूरी-भूरी प्रशंसा की। अर्चना मैम को जब सम्मानित करने के लिए पुकारा गया तो संस्थान का प्रांगण तालियों की गड़गड़ाहट से गूंँज उठा।   अर्चना मैम ने भी अपने संक्षिप्त भाषण में सरकार के प्रति, समाज के शुभचिंतकों और सहयोगियों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त किया, इसके साथ ही प्रशिक्षणार्थियों को भी धन्यवाद दिया, जिनके मेहनत, लगन और अथक प्रयास से यह आयोजन सफल हुआ। 

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                  मुकुन्द लाल 

                   हजारीबाग(झारखंड)

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