आज कुछ एक्सपेरिमेंटल करती हूं। – मुक्ता सक्सेना

मां, आगे से आप हमसे तो कोई उम्मीद मत रखिएगा। आपने क्या सोच कर हमे पैदा किया था? क्या हमारा कोई अपना भविष्य, पत्नी बच्चे, चाहतें नही है। आपके पास ये अपना घर है। हमे कुछ नही चाहिए। लेकिन हम जीवन भर का बोझ नहीं उठा सकते। क्या इसी दिन के लिए हम लोग पढ़े लिखे, और अच्छे पद पर काम कर रहे है। अब जब घूमने फिरने का समय आया तब एक बोझ हमारे ऊपर डाल कर अपना मुक्त होना चाहती हैं?

सुधा जी ने गगन का हाथ पकड़ कर कहा – बेटा, हम लोग भी अब बूढ़े हो गए हैं। कब तक जिंदा रहेंगे? तुम लोग नहीं संभालोगे तो कौन उसकी देख भाल करेगा।

गगन ने लगभग हाथ झटकते हुए कहा – जब तक मेरी शादी नही हुई थी, तब तक तो ठीक था। लेकिन अब नहीं। नौकरी देखूं, परिवार देखूं या us बोझ को?

सुधा जी ने फिर एक प्रयास किया – बेटा, वो बोझ नहीं है, परिवार का सदस्य है, सबसे बड़ा है। भूल गए तुम सब । कितना प्यार करते थे सब लोग उससे। लेकिन जैसे जैसे, बड़े होते गए। नौकरी बाहर ले ली, शादी हो गई, सब बदल गया। अब वो भाई न होकर बोझ हो गया। शीतल  और श्वेता ने तो तुम्हारी शादी के बाद घर भी आना छोड़ दिया।आज 7 साल हों गए उन्हें यहां आए हुए। बहुत हुआ तो फोन पर बात करली। वो तो बेटियां हैं, उनसे क्या कहूं। जैसा उनका परिवार कहेगा, उनको वैसा ही करना होगा। लेकिन तुम तो भाई हो अमित के। हमारे बाद तुम्हे ही उसकी देखभाल करनी होगी।

गगन ने तब तक अपना हाथ सुधा जी के हाथ से छुड़ा लिया था, और ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए कहा – आपको किसने कहा था कि जब एक बेटा अपंग है, तो आप लोग अगले बच्चों के बारे के सोचें। आपने कभी सोचा कि कभी हम लोगो का भी अपना जीवन होगा? या सब कुछ हम लोगों पर ही लादना था। इससे तो बेहतर होता कि आपने जो पैसा हमारे होने, पढ़ाने और करियर बनाने पर खर्च किया, वो भाई के अच्छे इलाज में खर्च कर दिया होता, तो शायद भाई आज व्हीलचेयर पर नही होता, अपने पैरो पर खड़ा होता। खैर, आप किसी मेल नर्स को रख लीजिए, खर्च बता दीजिएगा। मैं हर महीने पैसे भेजता रहूंगा।




इतना कहकर गगन ने कार आगे बढ़ा दी। सुधा जी यही कहती रह गई कि पैसे तो उनके पास भी हैं, जरूरत् तो अब 70 वर्ष की उम्र में तुम लोगों की है। लें अब ये बातें सुनने वाला कोई नही था। वो बहुत देर तक यूहीं सूनी सड़क निहारती रही।

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जी हां, ये एक परिवार का नही, आप किसी बड़े हॉस्पिटल के न्यूरो या आर्थो डिपार्टमेंट में चले जाइए, आपको ऐसे बहुत से लोग दिखेंगे। जो खुद 75-80 वर्ष के थे, और अपने 50 -55 साल के अपंग बेटे को या तो खुद या किसी अटेंडेंट, या किसी तरह से खुद लेकर ( कभी कभी तो गोद में उठा कर) वहां इलाज के लिए आते मिल जायेंगे। जिनके परिवार में एक बच्चे के न्यूरोलॉजिकल या किसी दुर्घटनावश हुए अपंगता के बाद जब अपने डॉक्टर, परिवार के दबाव में, या फिर समाज के कहने पर  उन्होंने अपने उस बच्चे के इलाज पर फोकस करने के बजाय, आगे की संताने इसलिए पैदा की कि उनके बाद उनकी देखभाल वो कर लेंगे। लेकिन बहुत से लगभग 10 में से 8 ऐसे मिले जो विवश थे, क्योंकि उनके बाद k बच्चों ने उनकी दी गई जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया था।

ऐसा नहीं है कि सभी ऐसे मिले, बहुत से लोगों ने अपनी जिम्मेदारी संभाली भी। लेकिन ये अपवाद ही है आज भी।

मेरा बस इतना कहना है, कि आप अपने उस बच्चे को किसी और की जिम्मेदारी न बनाए। वो आपकी जिम्मेदारी है। अगर सब लोग इस बात को समझते होते , तो उनमें से बहुत से बच्चे कुछ हद तक सही हो सकते थे/ हैं। दूसरी बात, अगर सभी के बच्चे अपने भाई बहनों की देखभाल कर पाते तो ऐसे संस्थान क्यों खुलते जहां ये बच्चे अपने माता पिता के जाने के बाद, या उनके रहते भी वहां रहने को विवश हैं।

अब मुद्दे की बात ये है कि आप अपने रहते वो व्यवस्था करे , जब उनकी देखभाल ऐसे किसी ngo द्वारा घर में ही होंजाए।

और आपके बाद भी होती रहे। ये थोड़ा कठिन है, लेकिन खोजेंगे तो रास्ते भी मिल जाते हैं।

ये ख्याल मुझे बर्फी फिल्म देखने के बाद आया।

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अब मैं उन लोगो के बारे में कहना चाह रही हूं, जो लोग अपना पल्ला झाड़ लेते है। क्या आप इस विवशता पूर्ण जीवन को जीना चाहेंगे? नहीं ना। तो थोड़ी सी जगह बनाइए उनके लिए भी, जो लोग कुछ नहीं चाहते आपसे । सिर्फ देखभाल, और थोड़ा सा समय।

धन्यवाद

स्वलिखित

मुक्ता सक्सेना

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