आइना – क्षमा शुक्ला “क्षमा”

“और सुनाओ बिटिया घर में सभी का बात व्यवहार कैसा है तुम्हारे साथ?” माँ ने पहली बार मायके आई मोनी से ससुराल की खोज खबर लेते हुए पूछा, और साथ ही बहू को आवाज लगाकर दोपहर का भोजन अपने कमरे में ही लाने को कहा।

“माँ कुछ मत पूछो, घर है कि चिड़ियाघर। क्या देखकर ब्याह दिया तुमने हमें उस घर में? हर वक्त काम-काम-काम, रोज-रोज कोई न कोई यज्ञ, हवन, आयोजन। मैं तो रसोई से निकल ही नहीं पाती, ऊपर से तीनों जेठानियों के अलग ही तेवर। समय पर चाय न पहुँचाओ तो दिन भर मुँह सुजाए रहती हैं”।

“हे भगवान्! मेरी फूल सी बच्ची पिस कर रह गई घरदारी में,” माँ की ममता कराह उठी।

“माँ, तुम चिंता मत करो। अब के जब वापस जाऊँगी तो चारों महारानियों के लिए चार बेलन ले जाऊँगी। जिस पर भी गुस्सा आएगा, धर दूँगी एक,” मोनी ने रोष और जोश के मिले जुले भाव में कहा।

“और नहीं तो क्या, तुम्हें किसी से डरने या दबने की जरूरत नहीं, आखिर बहू हो, कोई नौकरानी थोड़ी हो,” माँ भी पूरे गुस्से में बेटी को नसीहत कर रही थीं।


तभी प्रज्ञा खाने की थाली लिए कमरे में दाखिल हुई और माँ ने बेटी की ससुराल की सारी खीझ अपनी बहू पर उलट दी—

“इतनी देर से लेकर आई हो भोजन, जब भूख ही मर गई! एक काम जो ढंग से कर लेती तुम। मेरे तो करम ही फूटे हैं, जो ऐसी निकम्मी बहू मिली है। पता नहीं माँ ने कुछ सिखाया भी है कि नहीं”।

“माँ जी, सिखाया तो सब है, मेरी माँ ने। बस वो बेलन ही देना भूल गयीं। अब की बार मायके जाऊँगी तो मैं भी ले आऊँगी। मेरा काम तो तीन बेलनों से ही चल जाएगा!” इतना कहकर प्रज्ञा कमरे की बोझलता में इज़ाफ़ा करती हुई थाली रख कर चली गई।

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