सुबह के सन्नाटे को तोड़ती हुई ईंटों की गिरने की आवाज ने पूरे घर का माहौल बदल दिया। घर के बाहर मजदूर ईंटों का ढेर लगा रहे थे। काका बैठक से बाहर निकल आए और काकी भी छड़ी के सहारे उनके पीछे आ खड़ी हुई। दोनों खामोश खड़े होकर मजदूरों को ईंटें उतारते देखते रहे। ऐसा लग रहा था, जैसे हर गिरती ईंट उनके दिल पर एक चोट कर रही हो।
काका और काकी के मन में आज जो खलबली थी, वह पिछले कई महीनों से दोनों बेटों और उनकी बहुओं के बीच चल रहे विवादों का नतीजा थी। एक समय था जब यह घर खुशियों से गूंजता था। बच्चे खेलते, हंसते, दौड़ते, और हर कोना खुशियों से सराबोर रहता। परंतु आज वही घर, जहां कभी प्यार और अपनापन था, ईंटों और दीवारों के नाम पर बंट रहा था।
काका की आंखों में आज वह दिन ताजा हो गया, जब दोनों बेटे छोटे थे। बड़े का नाम श्याम और छोटे का राम। श्याम हमेशा राम का ख्याल रखता था, और राम बड़े भाई को पिता समान मानता था। दोनों भाई एक साथ स्कूल जाते, एक ही थाली में खाते और रात में सोने से पहले मां से कहानियां सुनते। काका को वह दिन भी याद है, जब दोनों भाइयों ने उनकी पगड़ी पहनकर शादी का नाटक किया था, और पूरा परिवार हंसी में लोटपोट हो गया था।
समय ने करवट ली। दोनों भाइयों की शादी हो गई। घर में दो बहुएं आ गईं। काका और काकी को लगा था कि घर में रौनक और बढ़ जाएगी। शुरुआत में सबकुछ अच्छा रहा। त्योहारों पर मिठाइयों की खुशबू, बच्चों की किलकारियां और परिवार के सामूहिक खाने की यादें जैसे कल की ही बात लगती थीं।
लेकिन धीरे-धीरे रिश्तों में कड़वाहट आने लगी। श्याम और राम के बीच पहले छोटे-मोटे झगड़े हुए, जो बाद में गहरे होते गए। बहुएं, जो कभी एक-दूसरे की मदद करती थीं, अब एक-दूसरे के कामों में कमियां निकालने लगीं।
काका और काकी ने कई बार दोनों को समझाने की कोशिश की। लेकिन जब स्वाभिमान की बात आने लगी, तो समझौते की गुंजाइश खत्म होती गई।
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श्याम और राम अब अलग-अलग खाने लगे। पहले तो दोनों का खाना अलग हुआ, फिर किचन अलग हुए, और अब यह नौबत आ गई थी कि आंगन में दीवार खड़ी हो रही थी।
“पापाजी, अब बंटवारा हो ही गया है, तो दीवार भी लगवा दीजिए,” श्याम ने गुस्से में कहा था।
काका ने हतप्रभ होकर कहा, “लेकिन बेटा, आंगन तो साझा है। इसे बांटने से…?”
श्याम ने झुंझलाते हुए जवाब दिया, “पापाजी, हम और नहीं झगड़ सकते। अगर दीवार लग जाएगी तो सबके रास्ते अलग हो जाएंगे।”
राम ने भी अपनी ओर से साफ कर दिया था, “अगर दीवार नहीं लगती, तो हम कहीं और जाकर रहेंगे।”
यह सुनकर काका का दिल जैसे बैठ गया। उन्होंने अपनी पत्नी की ओर देखा, जैसे कोई समाधान मांग रहे हों। लेकिन काकी भी खामोश थीं।
रात को जब दोनों बेटे अपने-अपने कमरों में चले गए, तो काकी ने धीमे स्वर में कहा, “सुनो जी, लगवा दीजिए दीवार। कम से कम दोनों भाई एक ही छत के नीचे तो रहेंगे। अगर दीवार नहीं लगी, तो कहीं ऐसा न हो कि घर पूरी तरह बिखर जाए।”
काका ने भारी मन से सिर हिला दिया। अगले ही दिन मजदूर बुला लिए गए और ईंटें गिरने लगीं।
मजदूर अपनी धुन में काम कर रहे थे। ईंटों का ढेर लग रहा था और दीवार खड़ी होने की तैयारी शुरू हो चुकी थी।
काका और काकी के लिए यह दीवार सिर्फ ईंट और सीमेंट का ढांचा नहीं था। यह उनके सपनों, उनके परिवार और उनके अतीत के टुकड़े-टुकड़े होने की निशानी थी।
“अम्मा, पीछे हटिए, चोट लग जाएगी,” एक मजदूर ने कहा, जब काकी दीवार को गहरी नजरों से देख रही थीं।
काकी ने आंसू पोंछते हुए जवाब दिया, “इस चोट से बड़ी चोट तो शायद ही होगी।”
दीवार बन गई। अब घर दो हिस्सों में बंट चुका था। आंगन के एक तरफ श्याम का परिवार और दूसरी तरफ राम का।
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काका और काकी अब बारी-बारी से दोनों हिस्सों में जाते थे। कभी श्याम के यहां खाना खाते, तो कभी राम के। लेकिन दोनों के लिए यह दर्द सहना मुश्किल हो रहा था।
श्याम और राम के बच्चे, जो पहले एक साथ खेलते थे, अब दीवार की वजह से अलग-अलग हो गए थे।
समझ की कमी
एक दिन काकी ने काका से कहा, “हमने कितनी मेहनत से यह घर बनाया था। यह सोचा भी नहीं था कि हमारे जीते-जी ऐसा दिन देखना पड़ेगा।”
काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “शायद हमने बच्चों को सही संस्कार नहीं दिए। अगर हमने समय रहते उन्हें मिलकर रहने का महत्व समझाया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती।”
एक दिन राम का बेटा दीवार के इस पार खेल रहा था, तभी उसे चोट लग गई। श्याम का बेटा दौड़कर आया और उसे उठाया। बच्चों को देखकर राम और श्याम दोनों के दिल पसीज गए।
काका ने यह देखकर कहा, “बच्चे हमें सिखा रहे हैं कि दीवारें रिश्तों को नहीं बांट सकतीं।”
राम ने सिर झुकाकर कहा, “पापाजी, हमने गलती की। हमें यह दीवार नहीं बनानी चाहिए थी।”
श्याम ने भी सहमति में सिर हिलाया।
रिश्तों की मरम्मत
धीरे-धीरे परिवार ने दीवार हटाने का फैसला किया।
“अगर हम दीवार गिरा सकते हैं, तो अपने अहंकार को भी गिरा सकते हैं,” काकी ने कहा।
बच्चों ने मिलकर दीवार को तोड़ा, और एक बार फिर से आंगन में वही पुरानी रौनक लौट आई।
परिवार की सच्ची ताकत एकता में है। “जहां प्रेम है, वहां दीवारें नहीं हो सकतीं।”
राशि सिंह
मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
(मूल रचना )