“मेम साहब “ – अरविंद दीक्षित

“राजा ,तुम्हारा पत्र “मैने अपने बैरे को आवाज  लगाई.उसे मेरी बात पर

विश्वास ही आया .उसने वही से मुस्कुराते  हुए उत्तर दिया “क्यों साहब

!मजाक को भी आपको यही मेरे काम का समय मिला ,मेरा पत्र !आप वहीं से ही पढ़

दीजिये “

    मै एक क्षण उसके भोले मुस्कुराते चेहरे को देखता रहा ,फिर मैने उसका

पत्र पढ़ा “माँ बीमार है ,तुरंत आओ –मधुर “इतना सुनते ही राजू एकदम चौंक

गया ,उसके चेहरे पर विषाद झलके लगा .उस पर ये परिवर्तन देख सहज जिज्ञासा

से मैने पूछा “क्यों राजा ,ये मधुर कौन है और किसकी माँ बीमार है ?तुमने

अब तक कभी इनके बारे में नही बताया ?”

राजू ,अपने स्कार्फ से खेलता हुआ फीकि मुस्कान से बोला “साहब !मेरे जीवन

में बताने लायक था भी क्या ?मै तो अपने माता पिता का नाम तक नही

जानता,हाँ ,ये जरुर भले से जानता की मेरी परवरिश  एक अनाथालय में हुयी


,और एक दिन ,एक साहब मुझमे न जाने कौन से खूबी देख मुझे अपने साथा घर ले

गये,वो घर मेरी आशा के अनुकूल था ,मेरे सपनों का संसार था ,वहां एक

नि:संतान महिला थी जिनका परिचय मुझे मेरी माँ के रूप में दिया गया .

हाँ !वे सचमुच माँ थी ,मै उनके सामीप्य में भूल ही गया की मे अनाथ था .कई

नौकरों के होते हुए भी दिल के सम्पूर्ण वात्सल्य से मेरे सारे दैनिक

कार्य खुद ही पुरे करती थी ,मुझे सारे वे सुख प्राप्य थे जो एक माँ से

मिलते है “

मै ध्यानपूर्वक राजू के चेहरे की और देख रहा था ,उसके चेहरे पर से बच्चो

सा भोलापन निरीह कातरता में बदलता जा रहा था .वह इक क्षण चुप रह अपनी

हथेलियों की और देखता रहा फिर धीमे से मुस्कुरा कर बोला “  पर साहब

,विधाता मेरे हाथो में इस सुख की लकीरे ही खींचना भूल गया था सपनो का

संसार अभी बसने भी न पाया वह आई ,जो मेरे सौभाग्य सूर्य को दूर उड़ा के ले

गयी .माँ कई वर्षो बाद सच्चे अर्थो में माँ बनी .मेरा प्रतिव्दंदी बन

मधुर उनकी गोद में आया .

ओह !सब कितने खुश थे उस दिन !घर में बहुत बड़ी पार्टी आयोजित थी ,उस

पार्टी में मेरा ध्यान उन मेहमानों पर गया जो मेरी और संकेत कर  मेरा

मजाक उड़ा ,कह रहे थे “आप इस छोकरे को जानते है ,वह बेचारा ,रमी के खेल का

त्रेपनवा पत्ता है ,जब इच्छित पत्ता नही होता ,इसे लगाया जा सकता है


,लेकिन इच्छित पत्ता मिल जाने पर ..”?

मै अपनी कम उम्र में भी सब कुछ समझ चुका था ,मै रुआंसा सा ,सीधा माँ के

पास पहुंचा जो अपने नवजात को गोद में लिटाये ,उसका सर सहला रही थी .मैने

उन्हें पुकारा .मेरी आवाज सुन वे चोंक गयी ,अपने बच्चे को दूर लिटा मुझसे

बड़े स्नेह से पूंछा “क्यों राजू ,तू इस तरह काँप क्यों रहा है ?”उनके

स्नेहिल स्वर से मेरा बाँध टूट गया ,मैने उनसे रोते हुए कहा “माँ ,क्या

सच में ,अब मेरी हैसियत रमी के जोकर जैसी हो गयी ,मेरा काम खत्म ओ मै दूध

की मक्खी .”

इसके आगे सुनने की उनकी हिम्मत नही हुयी .मुझे बरबस अपने गले लिपटा बोली

“तेरे कान आज जरुर किसी ने भरे है ,पगले ,ऐसा भी कहीं होता है “

मेरा सारा रोष आंसुओ में बह निकल गया ,फिर भी माँ का स्नेह सदा मेरे लिए

उलझन ही बना रहा ,मै कभी निर्णय नही कर पाया कि वह वास्तविक स्नेह ही है

या मात्र लोकाचार ?”

इतना कह राजू इक क्षण को रुक गया फिर सिगरेट सुलगा ,धुंए का एक बड़ा गुबार

बाहर फेंक ,आगे कहना प्रारम्भ किया

“हाँ !मधुर के आने के बाद साहब का व्यवहार स्पस्ट ही था ,उन्हें मेरी

आवयकता नही थी किन्तु वे खुद को उदार दानी सह्रदय कहलाना पसंद करते थे

,फिर भी मै वह धटना नही भूल पाता जब उन्होंने अपने सारे मुखोटे फेक मेरी

माँ को मेम साहब बना दिया ,मेम साहब “

इन शब्दों के साथ ,राजू के चेहरे  पर उत्तेजना के चिन्ह दिखाई देने लगे

.मैने उसे समझाते हुए कहा “छोडो भी राजू ,आज क्यों उत्तेजित हो रहे हो

,जो बीत गया उसे भूलना ही श्रेयस्कर है “

मेरी बात सुन ,राजू के चहरे से उत्तेजना लुप्त हो गयी .वह सहज मुस्कुराते

हुए बोला “मैनेजर सा ,भूलना श्रेयस्कर भले हो लेकिन सहज नही .रही

उत्तेजना ,तो वह साहब लोगो का शौक है अपना नही .फिर मै भी वह घटना क्रम

कब भूल पाया .

एक शाम .स्कूल से बहुत प्रसन्न लौटा था परीक्षा में सर्वप्रथम जो आया था

.घर आते ही मैने माँ के गले में हाथ डाल ,उनको उनका माउथ दिलवाने का वादा

याद दिलाया हाँ उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया ,उन्होंने तुरंत माउथ

आर्गन मंगवाया किन्तु एक नही दो ,दुसरा उनके बेटे मधुर के लिए !

जब मैने बड़े आग्रह से मंगवाए माउथ आर्गन को एक बार भी मुँह से नही लगाया

,तो वे मेरी ईर्ष्या की भावना को समझ मुझे बहलाने का प्रयास करने लगी

“राजू .तू तो पूरा बुध्दू है ,तू समझता क्यों नही ,मधुर और तू .मेरे जीवन

के दो पहिये हो ,अत: जरूरी है दोनों पहियों में सामजस्य भी जरूरी है न ?”

उनकी बात मैने रोष से काट कहा”माँ ,मे अपने जीवन में किसी दुसरे को सहन

नही कर सकता हूँ ,माँ ,मै ,दुसरा पहिया ,सामंजस्य नही रख सकता है ,बेहतर

है वह यही टूट जाए .बिखर जाए “

साहब जाने कब से मौन खड़े ,हमारी बाते सुन रहे थे ,मेरे रोषित स्वर से

वर्षो से बंधा धैर्य तीखे स्वर में फूट पड़ा “नमकहराम ,जो मै कहना नही

चाहता था तू वही सुनना  चाहता है तो सुन मधुर से तेरी क्या बराबरी ?तेरा

स्थान तो उन मेरे नौकरों की श्रेणी में है ,जिनकी जुबान साहब .मेमसाहब

कहते कभी नही थकती .”

मैने माँ की और देखा ,जो सजल आँखों से मेरी और ही देख रही थी धीमे से

मुस्कुरा ,अभ्यस्त नौकरों की तरह ,मेरा हाथ अपने सिर की ओर उठा और मेरे

मुँह से निकला “सलाम मेम साहब “

राजू ने अपनी भीगी पलके पोंछ ,गले के रुमाल को कस कर बांधते हुए बात को

आगे  बढ़ाया “हाँ !इस घटना के बाद ,मै राजा से राजू बटलर बन गया .बटलर

!बैरा !किन्तु इसके बाद भी मेम साहब का व्यवहार पूर्ववत स्नेहिल ही बना

रहा किन्तु सिर्फ अकेले में ,अन्य लोगो की उपस्थिति में वे भी मेरे अपमान

का कोई मौक़ा नही छोडती थी .

मधुर ओ साहब से निरंतर अपमानित होकर भी ममता से बंधा मै सब सहता ही रहा

,अपनी ओर से शिकायत का कोई मौक़ा ही नही देना चाहता था ,आखिर एक दिन अकेले

में मेम साहब ,हाँ ,मेमसाहब ने मुझे स्पष्ट ही कह दिया “राजू .क्या तुम

में ज़रा भी गैरत ,स्वाभिमान नही है ,खुद मैने भी कितनी तुम्हे अपमानित

किया  ,लेकिन तुम पत्थर ही बने रहे ,तुम में भले स्वाभिमान न हो लेकिन


मुझमे तो है ,तुम मेरा स्नेह हो ,मै तुम्हे अपमानित होते नही देख सकती

,लेकिन जहां मेरा बस ही नही वहां मै क्या करू ?तुम सब छोड़ यहाँ से चले

जाओ ,निरंतर अपमान की ज्वाला में अपने साथ मुझे भी मत जलाओ “

राजू यह  कहते हुए रुक सा गया फिर एक ठंडी श्वास ले बोला –“साहब ,मारे और

रोने भी न दे शायद इसे ही कहते है ,आखिर मै पराया ही ठहरा ,उन्होंने

अपनेपन का सुंदर आवरण दे मुझे विदा कर ही दिया .”

आगे राजू और भी कुछ कहता इसके पूर्व ही मैने उसे समझाते हुए कहा “राजू

,जीवन अपने आप में एक बंधन है इसमें बंधे इंसान को उसकी इच्छा अनिच्छा

जाने बिना ही ,अपनी भावुकता की तराजू में तौल के अपराधी ठहराना उसके साथ

न्याय नही है .जाओ राजू ,जैसे भी है ,आखिर तुम्हारे है जाओ मिल तो आओ ही

मेरा अपनत्व भरा आग्रह राजू टाल न सका .जल्दी लौटने का वादा कर चुपचाप चला भी गया .

जब वह लौट कर आया अत्यंत प्रसन्न दिखाई दे रहा था .आते ही झूमता सा कहने

लगा “साहब ,मुझे आज की छुट्टी चाहिए आज मेरे पास मेरी मेम साहब आ रही है

,मेरी माँ आ रही है ,जब मे वहां पहुंचा वे मेरा ही इन्तजार कर रही थी

,मुझसे कहा गया था की वे अचेत है ,पर नही वे तो मेरे इन्तजार में थक के

सो गयी होंगी ..मेरी आवाज सुनते ही उन्होंने कराह कर आँखे खोल ली .मुझे

अपने से लिपटा कर कहने लगी “राजू ,मेरे बच्चे ,तू आ गया ,पगले ,पहले

कितनी बार तूने मुझे साथ चलने को कहा.पर तू नही जानता वो माँ नही मेमसाहब

थी मेमसाहब .जिसे अपनी ममता से अधिक अपनी मर्यादा की चाहत थी ,तू अक्सर

कहता था न की मेम साहब मुझे कोरी मीठी बातो से मत बहलाओ ,आज तुझे कोई

भुलावा नही दूंगी ,ले आज अपना सबकुछ तुझे ही देती हूँ .उन्होंने तकिये के

नीचे हाथ डाल कीमती गहनेओ कागज मेरे हाथो पर रख दिए .

मैने हाथ में ले ,सारे परिवार की ओर निहारा .सभी का मौन स्वीक्रति का

लक्षण था ,तभी मेरे मन में एक निश्चय जगा ,मैने जाने किस प्रेरणा से

,उनका दिया सबकुछ आगे बढ़ ,मधुर के हाथो पर रख दिया और माँ की ओर उन्मुख

होकर कहा”माँ बंटवारा  हो गया ,माँ तुम मेरे हिस्से में ,अब चलो मेरे साथ

माँ तीव्र  वेदना में भी जोर से हँस पड़ी साहब की ओर गर्वित द्रष्टि से

देख बोली “देख लिया ,मै न कहती थी की मै मेरे राजू को अच्छी तरह जानती

हूँ ,ले राजू आज मै तेरी पुरानी जिद पूरी करती हु ,मेरी वजह से तू अकारण

ही जलता रहा है न ,अब मुझे जलाकर अपनी तसल्ली कर लेना “

सहसा कार रुकने की आवाज से राजू चौंका और वे आ गयी  कहता हुआ तेजी से कार

की ओर भागा ,

मेरे कदम बरबस ही उस ओर बढ़  गये मैने देखा राजू एक बीमार महिला को कंधे

का सहारा देकर ,कार से उतार रहा है ,और वे उतरते ही राजू के कंधे पर हाथ


रख कह रही है ‘देख राजू ,मै आ गयी ,आ गयी न “

हाँ !वे आ गयी थी ,लेकिन प्राणों ने श्री का साथ छोड़ दिया था ,राजू

निर्जीव देह उठाये उसके कमरे की ओर बढ़ रहा था ,उसके ओठ बुदबुदा रहे थे

“हाँ तुम आ तो गयी “

मेरे हाथ बरबस उस स्नेहमयी के प्रति श्रध्दा से जुड़ गये ओ आँखे सजल हो गयी .

अरविंद दीक्षित

            प्रमाणीकरण —प्रमाणित किया जाता हे मेम साहब शीर्षक की

उक्त कहानी मेरी मोलिक अप्रकाशित अप्रसारित कहानी हे । आपके निर्णय होने

तक इसे अन्यत्र  नही भजूँगा ।

आपका विश्व्स्त

अरविंद दीक्षित

3 ,तिलकेशवर मार्ग तराना

जि उज्जैन म प्र

 

 

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