बेटी

बेटी


चौथी बार भी बेटे की आस में,
घर में पैदा हो गयी थी अनचाही।
हाय रे! फिर से छोरी ही जन्मी है!
दादी के लिए बड़ा मलाल बन गयी थी।

अपने पूरे हिस्से के लिए लड़ती,
मुँहजोरी कर अपनी टेक पर अड़ती,
छोरी! चुप न रह सके है बड़ों के सामने?
बड़ी बहनों के लिए, वो सवाल बन गयी थी।

पड़ोसियों के पेड़ से बेर चुरा लाती,
छोरों संग सायकल की रेस लगाती,
आय-हाय! पतंग लूटती है रे छोरी देखो!
किसी ने न की थी, वो मज़ाल बन गयी थी।

टीवी पर मैच देखकर सीटी बजाती,
दीवाली में बड़े-बड़े पटाखे छुड़ाती,
होली में सपनीले-से रंगों में रंग कर,
फुलझड़ी सी थी, वो गुलाल बन गयी थी।

सयानी हो गयी अकल नहीं आयी,
जल्दी ही होने को है अब तेरी सगाई,
न करना अभी ब्याह, मुझे तो ख़ूब पढ़ना है!
अपना मन खोल कर, वो बवाल बन गयी थी।

मैं वही करूंगी जो जो मेरा मन करेगा।
जो मेरे रास्ते में आयेगा वो हर्जाना भरेगा।
मेरी ज़िंदगी है, मेरे ही हिसाब से चलेगी।
बोल कर मोहल्ले में गरम उबाल बन गयी थी।

कितना अच्छा होता ये पैदा ही न हो पाती।
या अच्छा होता कि जनम लेते ही मर जाती।
पगड़ी उछालेगी, नाक कटवायेगी देखना,
पक्का ये सब लोगों का, वो ख़याल बन गयी थी।

अफसर बन गाँव में जब वापस थी आयी।
ढोल-नगाड़े ख़ूब बजे और गूँजी थी शहनाई।
मन की करके ही अब मनमोहिनी थी सबकी,
जिद्दी थी न जन्म से! आज मिसाल बन गयी थी।


स्वरचित, मौलिक
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़

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